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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है, इन्हीं को अपने कब्जे में कर लेने से 'मन' के चार उमराव क्रोध, मान, माया, और लोभ यह मेरे आज्ञाकारी बन गये हैं। जब इन्हीं पांचों को श्राज्ञाकारी बना लिए तब ही से पांच पंच 'इन्द्रियां' हैं उन्हों का सहज में पराजय कर लिया, बस इन्हीं १० योद्धों को जीत लेने से सर्व दुश्मन अपने आदेश में हो गये हैं अतः मैं दुश्मनों के अन्दर निर्भय विचरता हूँ। यह उत्तर श्रवण करने पर देवता विद्याधर और मनुष्यों को बड़ा ही आनन्द हुत्रा और भगवान् केशीश्रमण बोले कि प्रज्ञावन्त आपने मेरे प्रश्न का अच्छा युक्तिपूर्वक उत्तर दिया परन्तु मुझे एक और भी प्रश्न करना है ? गौतम-हे महाभाग्य आप अनुप्रह कर अवश्य फरमावें । (४) प्रश्न-हे गौतम ! इस आरापार संसार के अन्दर बहुत से जीव निवडबन्धरूपी पाश में बन्धे हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं तो आप इस पाश से मुक्त होके वायु की माफिक अप्रतिबन्ध कैसे विहार करते हो ? उ.--हे भगवान ! यह पाश बड़ा भारी है परन्तु मैं एक तीक्ष्ण धारा वाले शस्त्र के उपाय से इस पाश को छेद-भेद कर मुक्त होकर अप्रतिबन्ध विहार करता हूँ। तर्क - हे गोतम ! आपके कौनसी पाश है और कौनसे शस्त्र से छेदी है ? समा०-हे महाभाग्य ! इस घोर संसार के अन्दर रागद्वेष पुत्र कलत्र, धनधान्य रूपी जबरदस्त पाश है उन्हीं को जैन शासन के न्याय और सदागम भावों की शुद्ध श्रद्धना अर्थात् सम्यग्दर्शनरूपी तीक्षण धागवाले शस्त्र से उस पाश को छेदन-भेदन कर मुक्त होकर श्रानन्द में विचर रहा हूँ। अर्थात् राग द्वेष मोहरूपी पाश को तोड़ने के लिए सदागम का श्रवण और सम्यग् श्रद्धनारूप सम्यग्दर्शनरूपी शस्त्र है इन्हीं के जरिये जीव पाश से मुक्त हो सकता है। हे गौतम ! आप तो बड़े ही प्रज्ञावान हो और मेरे प्रश्न का उत्तर अच्छी युक्ति से कहके मेरे संशय को ठीक समाधान किया परन्तु एक और भी प्रश्न पूछता हूँ। गौतम-हे भगवान् मेरे पर अनुग्रह करावें । (५) प्रश्न-हे भाग्यशाली ! जीवों के हृदय में एक विषवेल्लि होती है जिसका फल विषमय होता है । उन्हीं फलों का आस्वादन करते हुए जगत् जीव भयंकर दुःख के भाजन हो जाते हैं तो हे गौतम आपने विषवेल्लि को मूल से कैसे उखेड़ के दूर करदी और अमृतपान करते हो ? उ०-हे भगवान् ! मैंने उसी विषवेल्लि को एक तीक्ष्ण कुदाले से जड़ामूल से उखेड़ दी, अब उन विषमय फल का भय न रखता हुश्रा जैन शासन में न्यायपूर्वक मार्ग का अवलम्बन कर अमृतपान करता हुआ विचरता हूँ। तर्क-हे गौतम! आपके कौनसी विषवेल्लि है और कौन से कुदाल से उसको उखेड़ कर दूर करी है ? समा०-हे केशीश्रमण ! इस घोर संसार के अन्दर रहे हुवे अज्ञानी जीवों के हृदय में तृष्णारूपी विषवेल्लि है; वह वेल्लि भवभ्रमणरूपी विषमय फल देने वाली है परन्तु मैं संतोषरूपी तीक्षण धारावाला कुदाला से जडा-मूल से नष्ट करके शासन के न्याय माफिक निर्भय होके विचरता हूँ। wrAN ..३२ Jain Educacinternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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