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आचार्य केशीश्रमण का जीवन ]
[वि० पू० ५५४ वर्ष
(६) प्रश्न-हे गौतम ! इस रौद्र संसार के अन्दर प्राणियों के हृदय और रोमरोम के अन्दर भयंकर जानल्यमान अग्नि प्रज्वलित होती हुई प्राणियों को मूल से जला देती है, तो हे गौतम ! आप इस ज्वलंत अमिको शान्त करते निर्भय होकर कैसे विचरते हैं ?
उ०-हे भगवान् ! इस कुपित अग्नि पर मैं महामेघ की धारा के जल को छांट कर बिलकुल शान्त करके उस अग्नि से निर्भय होकर विचरता हूँ।
तर्क-हे गौतम! आपके कौन सी अग्नि है और कौनसा जल है ?
समा०-हे भगवान् ! कषायरूपी अग्नि अज्ञानी प्राणियों को जला रही है परन्तु तीर्थकर रूपी महामेघ के अन्दर से सदागम रूपी मूसलधारा जल से सिंचन करके बिलकुल शान्त करता हुआ मैं निर्भय विचरता हूँ ।
(७) प्रश्न-हे गौतम ! एक महाभयंकर-रौद्र-दुष्ट दिशाविदशा में उन्मार्ग चलने वाला अश्व जगत के प्राणियों को स्वइच्छित स्थान पर ले जाता है तो हे गौतम ! आप भी ऐसे अश्वारूढ हैं फिर भी आपको वह उन्मार्ग नहीं ले जाता हुआ वह अश्व तुमारी मरजी माफिक चलता है इसका क्या कारण है ? ____उ०-हे भगवान् ! उस अश्वका स्वभाव तो रौद्र भयंकर और दुष्ट ही है और अज्ञानी प्राणियों को उन्मार्ग लेजा के बड़ा ही दुःखी बना देता है परन्तु मैंने उस अश्व के मुंह में एक जबरजस्त लगाम और गले में एक बड़ा रस्सा डाल दिया है कि जिन्हों से सिवाय मेरी इच्छा के किसी भी उन्मार्ग में बिलकुल जा नहीं सकता है अर्थात् मेरी इच्छानुसार ही चलता है।
तर्क-हे गौतम ! आपके अश्व कौन और लगाम तथा रस्सा कौन सा है ?
समा०-हे भगवान् ! इस लोक में बड़ा साहसिक रौद्र उन्मार्ग चलने वाला 'मन' रूपी दुष्टअश्व है वह अज्ञानी जीवों को स्वइच्छा घुमाये करता है परन्तु मैं धर्म शिक्षणरूपी लगाम और शुभ ध्यानरूपी रस्सा से खेंच के अपने कब्जे में कर लिया है कि अब किसी प्रकार के उन्मार्गादि का भय नहीं रखता हुवा मैं आनन्द में विचरता हूँ।
केशीनमण । हे प्रज्ञावान, गौतम ! आपने अच्छी युक्ति से यह उत्तर दिया है परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पूछना है ? परिषदा को बड़ा ही आनन्द होता है ।
गौतम-हे दयालु कृपा कर फरमावें ।
(८) प्रश्न-हे गौतम इस लोक के अन्दर अनेक कुपन्थ ( खराब मार्ग) हैं और बहुत से जीव अच्छे रास्ते का त्याग कर कुपन्थ को स्वीकार करते हैं। उन्हीं से अनेक शारीरिक मानसिक तकलीफें उठाते हैं तो हे गौतम श्राप इन्हीं कुपंथ से बच के सन्मार्ग पर किस तरह चलते हो ?
उ०-हे भगवान् ! इस लोक के अन्दर जितने सन्मार्ग और उन्मार्ग हैं वह सर्व मेरे जाने हुवे हैं अर्थात् सुपन्य कुपन्थको मैं ठीक ठीक जानता हूँ इसी वास्ते कुपन्थ का त्याग कर सुपन्थ पर आनन्द से चलता हूँ।
तर्क-हे गौतम ! इस लोक में कौनसा अच्छा और कौनसा बुरा रास्ता है ?
समा०-हे महाभाग्य ! इस लोक में अनेक मत-मतांतर हैं जो स्वच्छंद निजमतिकल्पना इन्द्रियपोषक वार्थवृत्ति से तत्व के अज्ञात लोगों ने चलाये हैं अर्थात ३६३ पाखण्डियों के चलाये हुये रस्तों को कुपस्थ कहते हैं और सर्वज्ञ भगवान् ने निस्पृहता से जगतोद्धार के लिये तत्वज्ञानमय रस्ता बतलाया है वह सुपंथ है अतः मैं कुपन्थ का त्याग करता हुआ सुंदर सद्बोधदाता सुपन्थ पर ही चलता हुआ आत्महमणवा कर रहा हूँ।
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