________________
आचार्य कक्कर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
कहा जाता है कि, अशोक ने अपने जीवन काल में बौद्ध भिक्षओं की एक विशाल सभा की थी । जिसमें उपगुप्ताचार्य आदि बौद्धधर्म के कई महान् भिक्षुक सम्मिलित हुये थे । उनमें उत्तम और चरित्रवान भिक्षुओं को चुन २ कर प्रचार के लिये भेजा गया था। शेष दुरंगे और पाखण्डी भिक्षुओं से भिक्षुक वेष atra लिया गया था । यह बात कहां तक सत्य है इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता ।
सम्राट् अशोक का व्यक्तित्व -- सम्राट् अशोक के व्यक्तित्व के विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है | इतने बड़े साम्राज्य का इतना उत्तम ढंग से संचालन करना ही उनके महान् व्यक्तित्व का सूचक है । वे एक अद्भुत कर्मशील, उच्च चरित्र और शांत मनुष्य थे । उनके वचन और कर्म में आश्चर्यजनक एकता पाई जाती है ।
सम्राट् अशोक के सिद्धान्त - अशोक के शिलालेखों और उनकी धर्म लीपियों में उनके सिद्धान्तों का पूर्ण परिचय मिलता है । उनके मुख्य सिद्धान्त अहिंसा, सत्य, पवित्र जीवन, बड़ों और श्रमण ब्राह्मणों का सम्मान आदि विषयों से सम्बन्ध रखते हैं । अहिंसा, और जीवरक्षा तो भविष्य में जाकर अशोक के जीवन का मूलमन्त्र हो गइ थी। पहले उनकी पाकशाला में प्रति दिन सहस्त्रों जीवों की हत्या होती थी, बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात भी उनके भोजन के लिए दो मोर और एक हिरण मारे जाते थे । पर अपने शासन के सोलहवें वर्ष में उन्होंने अपनी पाकशाला में जीवहिंसा बिलकुल बन्द कर दी और उसके दो वर्ष पश्चात् शिकार खेलना भी बन्द कर दिया। शासन के ३० वें वर्ष में उन्होंने अपने राज्य में जीवों का वध एक दम बन्द करवा दिया। हिंसा के पश्चात् सम्राट् का दूसरा सिद्धान्त सत्य-प्रेम' था । प्रत्येक मनुष्य का सत्य वक्ता होना उनकी दृष्टि में श्रावश्यक था । इसके अतिरिक्त उस समय जो बौद्ध लोग दूसरे धर्मों को निगाह से देखने लग गये थे, उनके लिए भी उन्होंने एक कानून बनाया था । उस कानून द्वारा उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य ठहराया कि, वह दूसरों के धर्म विश्वास और उपासना की रीति में बाधक न हो । और प्रत्येक धर्म के साथ सहानुभूति और प्रेम का व्यवहार करे। किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि, वह दूसरे धर्म के लिए अपमान सूचक शब्दों का व्यवहार करे | क्योंकि, सभी धर्मों के मूल सिद्धान्त जीवन को पवित्रता की ओर ले जाने वाले होते हैं। अशोक का तीसरा सिद्धान्त बड़ों का सम्मान, ब्राह्मणों और श्रमणों के प्रति श्रद्धा और छोटों पर दया करने का था । उनके साम्राज्य में प्रत्येक व्यक्ति का यह अनिवार्य कर्तव्य ठहराया गया था कि वह अपने गुरुजनों के साथ सम्मान पूर्वक आचरण करे। यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार अपमान करता तो वह दण्ड का भागी होता था । इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को राज्य की ओर से आदेश था कि, वह अपने अधीनस्थ लोगों साथ दया और अनुकम्पा का व्यवहार करे । एक धर्मलिपि में अशोक ने दान की बड़ी प्रशंसा की है । उन्होंने कहा है कि, औषधालय मनुष्यों की शरीर-रक्षा के लिए है । एवम् मन्दिर पुण्य के लिए ही बनाए जाते हैं परन्तु वास्तविक दान तो धर्म का दान है जो मनुष्य को आध्यात्मिक भोजन देता है ।
अशोक का साम्राज्य - अशोक के साम्राज्य का विस्तार जितना अधिक हुआ था उतना शायद अभी तक किसी सम्राट् के समय हुआ हो । उनका राज्य उत्तर में हिमालय और हिन्दूकुश पर्वत तक था । सारा अफगानिस्तान, बलुचिस्थान, और सिन्ध उनके साम्राज्यान्तर्गत था । कश्मीर, नेपाल, स्वात और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२८५ www.jainelibrary.org