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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
पत्रोक्त शिलालेख एवं आज्ञापत्रों से अधिक सम्भव सम्प्रति का हो हो सकता है कारण इन शिलालेखों में जिन जिन शब्दों का प्रयोग किया है वे प्रायःजैनधर्म से ही अधिक सम्बंध रखता है इस विषय में डा० त्रि. ले० बड़ौदा वाला तथा सूर्यनारायणजी व्यास उज्जन वाले और बंगाल का इतिहासज्ञ बाबु नागेंद्र वसु ने अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि पूर्वोक्त शिलालेख धर्मलिपियें और आज्ञापत्र सम्राट् सम्प्रति के ही हैं। पाठकों को चाहिए कि संस्था से प्रकाशित प्राचीन जैन इतिहास संग्रह भाग ५ वाँ मंगवाकर आद्योपांत पढ़ ले कि जिससे इस विषय का ठीक निर्णय हो जाय।
सम्राट अशोक का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने काबिल है । सम्राट ने बोद्धधर्म का खूब ही प्रचार किया था । अपनी अंतिमावस्था तक उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को दान दिया था । सम्राट ने ४१ वर्ष राज कर इस मनुष्यलोक से विदा ली।
महाराजा कुणाल--यह सम्राट अशोक के पुत्र थे इनके विषय में जैन और बौद्ध ग्रंथकारों ने अपने २ ग्रंथों में खूब विस्तार से लिखा है जैसे बौद्ध प्रथ दिव्यावदान और अवदानकल्पल्ला में लिखा है जिसका सारांश यह है कि राजकुमार कुणाल की अांखें बड़ी सुंदर थीं उस पर अशोक की तिष्यरक्षिता नामक रानी ने मोहित हो कर कुणाल से अनुचित प्रार्थना की परंतु कुणाल बड़ा ही सुशील एवं सदाचारी था उसने रानी को अपनी विमाता समझ कर उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की इससे वह नाराज हो गई और अवसर मिलने पर इसका बदला लेने का निश्चय कर लिया।
___ एक समय राजा अशोक बीमार हो गया था और उसने अनेक वैद्यों से इलाज भी करवाया परंतु उसकी बीमारी गई नहीं । उस समय रानी तिष्यरक्षिता ने अपनी कार्य कुशलता से ऐसा उपचार किया कि राजा की बीमारी चली गई और शरीर आरोग्य हो गया । राजा ने खुश होकर रानी के माँगने पर ७ दिन का राज दे दिया। बस फिर तो था ही क्या ? रानी ने कुणाल से अपना बैर लेने के लिए राजा अशोक के नाम से एक आज्ञापत्र लिखकर तक्षशिला के अधिकारियों पर भेजा कि कुणाल हमारे कुल में कलंकरूप है इसलिये उसकी आंखें निकाल दी जायं । बस; पत्र पहुँचते ही अधिकारी लोगों ने उस पत्र को कुणाल को सुनाया और कुणाल ने उसको स्वीकार भी कर लिया। चांडालों को बुलाया परन्तु इस अनुचित कार्य में किसी ने साहस नहीं किया। इस पर कुणाल ने स्वयं अपनी आँखें निकाल कर अपने पिता के नाम से आये हुए पत्र की आज्ञा का पालन किया।
जैन लेखकों ने लिखा है कि महाराज अशोक ने अपनी रानी की खटपट से अपना कुंवर कुणाल को सकशल रहने के लिए विचार करके उज्जैन भेज दिया था । बाद एक समय सम्राट ने उज्जैन के अधिकारियों को एक पत्र लिखा कि अब कुवर विद्याध्ययन करे "अधीयउ कुमारों' उस समय अशोक की रानी तिष्यरक्षिता पाम में बैठी थी । राजा के कहीं जाने पर उसने पत्र को पढ़ा और सोचा कि कुणाल पढ़ जायगा तो राज का मालिक हो जायगा इस इरादे से अपनी आंखों के कज्जल से एक शलाका भर अकार के ऊपर विंदी लगा दी की वह “अंधीयउ कुमारो" हो गया। राजा वापिस आया और बिना ही पढ़े कागज पर मुहर कर उसको उज्जैन भेज दिया और पत्र पहुँचते ही वहाँ के अधिकारियों ने कुणाल को सूचित किया । कुणाल ने प्रसन्नता पूर्वक अपने नेत्र निकाल डाले ।
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