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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
इन दोनों लेखकों का एक ही मत है केवल स्थान का अंतर । बौद्ध तक्षशिला बतलाते हैं तब जैन उज्जैन कहते हैं परंतु यह तक्षशिला उज्जैन का ही नाम है । वैजयंती कोष पृष्ट १५९ पर " अवन्तिस्यातक्षशिला' अर्थात् अवंती का नाम ही तक्षशिला था ।
कुणाल के उज्जैन में रहते हुये एक पुत्र हुआ । कुणाल स्वयं अंधा था अतः राजगद्दी के अयोग्य था परन्तु जब उसके पुत्र हो गया तो उसकी इच्छा हुई कि मैं पुत्र को राजगद्दी बैठाऊं ! कुणाल गायनविद्या में बड़ा ही प्रवीण था अतः नवजात पुत्र को साथ लेकर क्रमश: पाटलीपुत्र पहुँचा और गाने के कारण उसकी सम्पूर्ण नगर में प्रसिद्धि होगई एवं सर्वत्र धूम मच गई अतः राजा को मालूम होने पर उसको राजसभा में बुलाया गया और एक कनात डलवा दी गई एवं कुणाल राजसभा में आया। कनात के अन्तर में बैठकर राजा को गायन से खुश किया। इस पर राजा ने कहा कि मैं तुझे क्या दूं ? कनात के अन्दर बैठा कुणाल कहता है ।
तो चन्द्रगुप्तस्स विन्दुसारस्स नतुओ, अशोगसिरीणो पुत्तो अन्धो जायइ कांगिणी १ ॥
इन शब्दों को सुन कर अपना आज्ञापालक पुत्र कुणाल समझ कर राजा चौंक उठा । परदा दूर करवा के कुणाल को गले से लगाकर मिला क्योंकि कुणाल सरीखे विनीत पुत्र का चिरकाल से मिलने से अशोक को हर्ष होना स्वाभाविक ही था । बाद अशोक ने पूछा कि पुत्र तुमने काकाणी का क्या मांगा। पास में बैठे हुए मंत्रियों ने कहा कि यह राज परिभाषा है और इसका अर्थ होता है राज्य । अशोक ने पुनः पूजा कि जब तूं आंखों से अंधा है फिर राज को लेकर क्या करेगा। कुणाल ने उत्तर दिया कि आपके पौत्र का जन्म हुआ है | अशोक ने कहा कि कन ? कुणाल ने कहा कि 'सम्प्रति' । बस, अशोक ने सम्प्रति को गोद में लेकर उसको युवराज पद अर्पण कर उज्जैन का शासनकर्ता नियुक्त कर दिया । वहां से लौट कर कुणाल सम्प्रति को लेकर उज्जैन आगया ।
प्रपौत्रचन्द्रगुप्तस्य, विन्दुसारस्यनप्तृकः एपोऽशोकश्रियः सुनूरन्धो मार्गतिकाकिणीम् पद्यप्रबन्धमन्धेन, गीयमानंमहिपतिः श्रुत्वापमच्छ को नाम त्वमस्याख्याहि गायन ॥ १ ॥
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क्रमेण साधयामास भरतार्धसदक्षिणम्, प्रचण्डशासनश्चभूत्पाक शासनसन्निभः
" परिशिष्ठपयं खर्ग ९ श्लोक ४-४३-५४" "किं काहि सि अंधओ रज्जेणं, कुणालो भणति मम पुत्तोत्थित, संपति नाम कुमारो, दिन्नं, रजं"
वृहत्कल्प चूर्णि २२ तस्यसुत: कुणालस्तन्नंदनस्त्रिखंडभोक्ता संप्रतिनामाभूपति भूत्स च जाता मात्र एव पितामहदत्तराज्य:"
किराणावली १६५
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