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... (२) दुसरा अवगुणग्राही-वे भी निराश नहीं होते हैं पर अपनी प्रकृति के अनुसार कैसा ही कार्य
क्यों न हो पर उनको भी कुछ न कुछ मिल ही जाता है। वे कहते हैं कि इस प्रन्थ को लिखकर मुमिजी ने क्या अधिकाइ की है जो बातें आपने अपने ग्रन्थ में लिखी है वह तो सब पहले से ही लिखी हुई थी दूसरा
आपने वंशावलियों एवं पट्टावलियों के आधार पर बहुत-सी बातें लिखी हैं जिन पर विद्वानों का विश्वास ही कम है तीसरा आपके लिखे ग्रन्थों में अशुद्धियाँ भी बहुत हैं चतुर्थ बात यह है कि इस ग्रन्थ लिखने में आपने जो अयोजन पहले से किया वह व्यवस्था भी ठीक नहीं कर पाये फिर आपके प्रन्थ से हम क्या गण ले सके हमें तो जहाँ देखे वहाँ अवगुण ही दृष्टि गौचर होते हैं। हमने तो भूतकाल में कहीं गुण देखा नहीं और भविष्य में उम्मेद भी नहीं रख सकते हैं एक मुनिजी के ग्रन्थ में ही क्यों पर संसार भर में जहाँ देखू वह मुझे तो अवगुण ही अवगुण दीख पड़ते हैं।
(३) तीसरा मध्यस्थ दृष्टि वाला पुरुष कहता है कि नहीं करने की अपेक्षा तो कुछ करना हजार दर्जे अच्छा है जो मनुष्य कार्य करने में गलती करता है फिर भी वह कार्य करता रहता है वह अपनी भूल को अवश्य सुधार सकता है। पृथक् २ ग्रन्थ में पृथक् बातें लिखी हैं उसको एक स्थान संग्रह करना कोई साधारण काम नहीं हैं और पाठकों के लिये भी कम सुविधा नहीं है कि सौ-ग्रन्थों की अपेक्षा एक ग्रन्थ से ही सौ बातें पढ़ने को मिल जाय । दूसरा वंशावलियों और पट्टावलियों पर अविश्वास रखने से ही समाज अपना गौरवशाली इतिहास से हाथ धो बैठा है। स्थानाभाव से हम अधिक नहीं लिख सकते हैं पर यह बात तो प्रसिद्ध है कि जैन समाजके दांनी मानी वीर उदार पुरुषोंने समाज वधर्म की नहीं पर देशके सर्वसाधारण की बड़ी बड़ी सेवाएं की हैं असंख्य द्रव्य ही नहीं पर अपने प्राणों का भी बलीदान देश हित कर दिये थे यही कारण है कि उन राजा महाराजा एवं बादशाह और नागरिकों की ओर से जगतसेठ नगरसेठ चोवरिया टीकायत चौधरी, पंच और शाह जैसी पद्वियों केवल इसी समाज के वीरों को मिली थी पर आज उनका इतिहास के प्रभाव उनकी संतान का न कहीं नाम है न कहीं स्थान है वे पग पग पर ठुकराए जाते हैं
आज स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में साधारण व्यक्तियों का इतिहास मिलता है पर उन वीरों का कहीं नाम निशान तक भी नहीं हैं। वंशा० पट्टावलियों हमारे पंचमहाब्रतधारी सत्यवक्ता भवभीरू आचार्यों की लिखी हुई है वे एक अक्षर भी जानबूझकर न्यूनाधिक लिखना संसार भ्रमन समझते थे उन वंशा० पट्टावलियों पर अविश्वास करने का नतीजा यह हुआ कि हमारे पूर्वजों का गौरवशाली इतिहास होने पर भी आज हमारी यह दशा हो रही है। मुनिजी ने अपने ग्रन्थ में वंशा० पट्टावलियों को स्थान दिया है यह बहुत दीघे दृष्टि का ही काम किया है। तीसरा प्रेस के कार्य में अशुद्धियाँ रह जाना एक साधारण बात है और एक मनुष्य पर अनेक कामों की जुम्मावारी होने से अव्यवस्था हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है अतः अवगुणप्राही अवगुण न ले तो वे अवगुण निकल ही नहीं सके इसलिये अवगुणग्राही लोगों का भी उपकार ही मानना चाहिये कि उनके चुने हुए अवगुण फिर दूसरी बार नहीं रह सके। और गुणग्राही सज्जनों का तो कर्तव्य ही है कि वह गुणग्रहन कर लेखक के उत्साह को बढ़ावे कि वे ऐसे ऐसे अनेक प्रन्थ लिखकर समाज के सामने रखे।
__म-सज्जन 'चान्द'
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