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________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १.--.[का. . मान ! ति ] * राज -संनिवासं महाविजयं पासादं कार (ति] अठतिसाय सतसहसेहि ।। दसगे च वसे दंड-संधी-साम मयो भरध-बस-पठानं महि-जयनं ति कारा पयति ....निरितय उयातानं च मनिरतना [ नि ] उपलभते [।। अनुवाद . . . . . . . .( ग्यारहवें वर्ष में ) ( किसी ) बुगराजा ने बनवाया मेड ( मडिलाबाजार ) को बड़े गदहों से हलसे खुदवा दिया, लोगों को धोखाबाजी से ठगने वाले ११३ वर्ष के तमर का देहसंधान को तोड़ दिया। बारहवें वर्ष में ... री उत्तरापथ में राजाओं को बहुत दुःख दिया। ११........ 'मंडं च अवराजनिवेसितं पीथुड गदभ-नंगलेन कासयति [f] जनस दंभावनं च नेसवससतिक [] तु भिदाति तमरदेह-संघातं ।। ] वारसमे च बसे 'हस' के.ज. सबसेहि वितासयति उतरापथ-राजानो.. अनुवाद--... और मगध वासियों को बड़ा भारी भय उत्पन्न करते हुए हस्तियों को सुगंग (प्रासाद ) तक ले गया और मगधाधिपति बृहस्पति को अपने चरणों में मुकाया तथा राजानन्द दास ले गई कलिंग जिन मूर्ति को और गृहरत्नों को लेकर प्रतिहारों द्वारा अंग मगध का धन ले आया। १२......... ' 'मगधानं च विपुलं भयं जनेतो हथी सुगंगीय ] पाययति [ । ] मागधं च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति [I] नंदराज-नीतं च कालिंगजिनं संनिवेसं.... 'गह-रतनान पडिहारेहि अंगमागध-वसुं च नेयाति [।। अनुवाद-.... 'अन्दर से लिखा हुआ (खुदे हुये ) सुन्दर शिखरों को बनवाया और साथ में सौ कारीगरों को जागीरें दी अद्भुत और आश्चर्य (हो ऐसी रीति से) हाथियों के भरे हुए जहाज नजराना हो । इस्ती रत्न माणिक्य, पाडयराज के यहाँ से इस समय अनेक मोती मानिक रत्न लूट करके लाये ऐसे वह सक्त ( लायक महाराजा)। १३.........."तु। जठर लिखिल-बरानि सिहरानि नीवेसयति सत-वेसिकनं परिहारेन । अभुतमछरियं च हाथि-नावन परीपुरं सव-देन हय-हथी-रतना [मा) निकं पंडराजा चेदानि अनेकानि मुतमणिरतनानि अहरापयति इध सतो अनुवाद-..... 'सब को वश किये। तेरहवें वर्ष में पवित्र कुमारी पर्वत के ऊपर जहाँ (जैन धर्म का) विजयधर्म चक्र सुप्रवृत्तमान है। प्रक्षीण संसृति (जन्म मरणों को नष्ट किये) काय निषीदी (स्तूप) ऊपर ( रहने वाले ) पाप को बताने वाले ( पाप ज्ञापकों ) के लिये व्रत पूरे हो गये पश्चात् मिलने वाले राज ( विभूतियाँ कायम कर दी । ( शासनो बन्ध दिये ) पूजा में रक्त उपासक खारवेल ने जीव और शरीर की-श्री की परीक्षा करली ( जीव और शरीर परीक्षा कर ली है। १४......... 'सिनो वसीकरोति [|| तेरसमे च वसे मुपवत-विजयचक-कुमारीपवते अरहिते य [?] प-खीण-ससितेहि कायनिसीदीयाय याप-जावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वसासितानि [1] पूजाय रत-उवास-खारवेल-सिरिना जीवदेह-सिरिका परिखिता [1] ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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