SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० २८८ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ....wwwwwwwwwwwwwwwwwww कर्तव्य होना चाहिए कि दूसरे धर्मों का भी सब अवसरों पर उचित सत्कार करें । इस प्रकार का यत्न करने से मनुष्य दूसरों की सेवा करते हुए भी अपने धर्म की उन्नति कर सकता है । इसके विरुद्ध कार्य करने से मनुष्य न तो अपनी ही भलाई कर सकता है न दूसरों की ही । इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति अपने धर्म की वृद्धि करने के लिए दूसरे धर्मों की निन्दा करता है वह अपने ही हाथों अपने धर्म पर कुठाराघात करता है । सहयोग ही सब से उत्तम वस्तु है । इसी के कारण सब लोग एक दूसरे के मतों को सहन करते हुए प्रेम-पूर्वक समाज में रह सकते हैं । देवताओं के प्रियदर्शी की यह इच्छा है कि सब लोगों को इस ढङ्ग की शिक्षा दी जाय जिससे कि, उनके सिद्धान्त शुद्ध हो । सब धर्म के लोगों को यह बतला देना चाहिये कि देवताओं काप्रियदर्शी सम्राट् दान और बाहरी विधानों की अपेक्षा वास्तविक धर्माचरण की उन्नति और सब धर्मों के पारस्परिक प्रेम को अधिक महत्व देता है । इसी उद्देश्य से धर्म का प्रबंध करने वाले कर्मचारी, निरीक्षक और अन्यान्य कर्मचारी लोग काम करते हैं । इसी का फल मेरे धर्म की उन्नति और धार्मिक दृष्टि से उसका प्रचार है। ९-देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी सम्राट् कहते हैं:- धर्म उत्तम है पर यह पूछा जा सकता है कि धर्म है क्या पदार्थ ? धर्म थोड़ी से थोड़ी बुराई और अधिक से अधिक भलाई करने में है। धर्म दया, दान, सत्य और पवित्र जीवन में है। इसलिए मैंने मनुष्यों, चौपायों, पक्षियों और जल-जन्तुओं के निमित्त सब प्रकार के दान दिये हैं। मैंने उनके हित के लिए बहुत से कार्य किये हैं। यहाँ तक कि उनके पीने के लिए जल का भी प्रबन्ध किया है। मैंने इस उद्देश्य से इस सूचना को खुदवाई है कि जिससे लोग उसके अनुसार चलें और सत्य पथ को ग्रहण करें। यह कार्य बहुत ही उत्तम और प्रशंसनीय है। इनके अलावा भी बहुत-से शिलालेख एवं आज्ञापत्र खुदे हुए भिन्न भिन्न स्थानों में मिले हैं पर स्थानाभाव से उन सबका इहाँ उल्लेख नहीं किया है तथापि पाठक उपरोक्त लेखों से अनुमान कर सकेंगे कि प्रस्तुत धर्म लेखों के खुदाने वाला सम्राट सम्प्रति जैनधर्म का कट्टर अनुयायी था । विशेष विस्तार के लिये डा. त्रि० ले० बड़ोदा वाले का लिखा 'प्राचीन भारतवर्ष का इतिहास' नामक ग्रंथ पढ़ कर इस विषय की ठीक जानकारी हासिल करें कि प्रस्तुत लेख किस सम्राट् के हैं ? सम्राट सम्प्रति का जीवन जैन ग्रंथकारों ने बहुत विस्तारपूर्वक लिखा है । सम्राट ने अपने जीवन में जैनधर्म का इतना अभ्युदय किया था कि इनके बाद इस प्रकार का किसी ने भी नहीं किया । हां, कुमारपालादि कई राजाओं ने जैनधर्म की समय समय पर उन्नति की, पर वे सम्राट् सम्प्रति की बराबरी नहीं कर पाये थे । सम्राट् सम्प्रति के बाद मौर्य वंश में ऐसा कोई राजा नहीं हुआ कि सम्राट् चन्द्रगुप्त, अशोक और सम्प्रति के राज विस्तार का पूर्णतया रक्षण कर सके । हाँ, सम्प्रति के बाद मगध के सिंहासन पर कुल १९ वर्ष में शलिशुक देववर्मा शतधनु और वृहद्रथ नाम के चार राजा हुए । अन्तिम वृहद्रथ नाम का राजा हुआ जिसके सेनापति पुष्पमित्र ने विश्वासघात से राजा को मार कर आप स्वयं मगध का राजा बन गया था। पुष्पमित्र वैदिक धर्मानुयायी था। इसके हाथ में राज की सत्ता आते ही जैन और बोद्धों के दिन बदल गये । परन्तु कलिंगपति महामेघबहान चक्रवर्ती राजा खारबेल जो कट्टर जैन था, मगध पर आक्रमण कर उनके शिर को अपने पैरों में मुका दिया था जिसका हाल आगे के प्रकरणों में लिखा जायगा। Jain Education 3 fional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy