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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
हीनता के कारण दान नहीं कर सकते उन्हें संयम चित्तशुद्धि, कृतज्ञता, दृढ़ चिन्तवना आदि गुणों का एकान्त पालन करना चाहिए।
५-देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी सम्राट् कहता है कि प्राचीन समय के राजा लोग अहेरिया के लिए जाया करते थे । अपना जी बहलाने के लिए वे जानवरों का शिकार तथा अन्य इसी प्रकार के खेल किया करते थे । मैं देवताओं का प्रियदर्शी सम्राट अपने राज्य के दशवें वर्ष में इस प्रकार मनोरंजन को बन्द करता हूँ। अब मुझे सत्यज्ञान प्राप्त हो गया है। आज से ब्राह्मणों और श्रमणों की भेंट करना उनको दान देना, वृद्धों से परामर्श करना, द्रव्य बांटना, राज्य में प्रजा से भेंट करना, प्रजाजनों को धार्मिक शिक्षा देना आदि कार्य ही मेरे मनोरञ्जन की सामग्री होगी। इस प्रकार देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी सम्राट अपने भले कामों से उत्पन्न हुए सुखों को भोगता है।
६-देवताओं के प्रिय-प्रियदशी सम्राट् इस के अतिरिक्त और किसी प्रकार की कीर्ति अथवा यशः को पूर्ण नहीं समझता कि, उसकी प्रजा वर्तमान में अथवा भविष्य में उसके धर्म को माने और उसके अनुसार कार्य करे । इसी एक मात्र यश को देवताओं का प्रियदर्शी सम्राट् चाहता है। प्रियदर्शी सम्राट् के सब उद्योग आगामी जीवन में मिलने वाले सुखों तथा जीवन मरण के बन्धनों से मुक्त होने के लिए हैं । क्योंकि जीवन मरण दुख ही सब से बड़ा दुःख है । लेकिन इस दुःख से छुटकारा पाना छोटे और बड़े दोनों ही के लिए कठिन है तब तक कठिन जब तक कि, वे अपने को सब वस्तुओं से अलग करने का दृढ़ उद्योग न करेंगे । खास कर बड़े लोगों के लिए इसका उद्योग करना बड़ा ही कठिन है ।
(बोधमत में आत्मा को क्षणक माना है अतः परभव का तो वहां आस्तित्व ही नहीं है अतः इस लेख के खुदवाने वाला कट्टर आस्तिक एवं जैन होना चाहिये जो सम्राट सम्प्रति था )
७-देवताओं केप्रिय, प्रियदर्शीसम्राट् कहते हैं:-धर्म की मित्रता के समान मित्रता, धर्म की भिक्षा के समान भिक्षा,धर्म के सम्बन्ध और धर्म के दान के बराबर दान दुनिया में कोई नहीं है । इसलिए अपने दास और साधारण भृत्यों के प्रति सदय व्यवहार, माता पिता की शुश्रूषा, मित्र, परिचित और जाती का सम्मान, ब्राह्मण और श्रमण लोगों को दान, प्राणियों के प्रति अहिंसाभाव, आदि सत्कार्यों को सम्पन्न करते रहना चाहिये । माता पिता, पुत्र, भ्राता, मित्र, परिचित और जाति के लोगों को यह उपदेश देते रहना चाहिए कि, ये कार्य सत्कार्य हैं-ये मनुष्य के कर्तव्य हैं । जो लोग हमेशा इस प्रकार का आचरण अथवा धर्मदान किया करते हैं वे इस लोक में पूजित एवं परलोक में अनन्त सुख भोगी होते हैं।
८-देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी सम्राट् सब धर्म के लोगों का क्या सन्यासी और क्या गृहस्थउचित सत्कार करता है । वह उन्हें भिक्षा और दूसरे प्रकार के दान देकर सन्तुष्ट करता है । लेकिन प्रियदर्शी सम्राट् इस प्रकार के दानों को उनके धर्माचरणों की उन्नति के सम्मुख कुछ भी नहीं समझता । यद्यपि यह सत्य है कि, मिन्न २ धर्मों में भिन्न २ प्रकार के पुण्य समझे जाते हैं तथापि उन सब का आधार एक ही है। वह श्राधार सुशीलता और सम्भाषण में शान्ति होना है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह कभी अपने धर्म की व्यर्थ प्रशंसा और दूसरों के धर्म की निन्दा न करे। किसी भी व्यक्ति का यह फर्तव्य नहीं है कि वह दूसरों के धर्म को बिना कारण हलका समझे । इसके विपरीत सब लोगों का यह
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