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________________ वि० पू० २८८ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चूस्त जैन होना चाहिये । कारण जीवदया के लिये इस प्रकार की आज्ञा देना जैनधर्म का ही सिद्धान्त है दूसरा अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा और अमावश्या वगैरह तिथियों का उल्लेख किया हैं इन तिथियों को जैन धर्म मे मुख्य मानी है और इन तिथियों में जन लोग पापारंभ से बच कर पौषधादि विशेष धर्माराधन करते है अतः यह कहना न्याय संगत है कि प्रस्तुत लेख सम्राट सम्प्रति की आज्ञा रूप ही समझना चाहिये । हाँ कई लोग इन लेखों को सम्राट् अशोक के भी कहते हैं जो बोद्ध धर्मोपासक था पर सम्राट् अशोक जो बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया था बाद भी उनके खुद के भोजन के लिये दो मयूर और एक मृग तो हमेशा मारे जाते थे उनसे यह आशा कब रखी जासकती है कि इस प्रकार जीवदया के लिये उसने श्राज्ञायें खुदाई हो अतः पूर्वोक्त आज्ञा लेख जैन धर्मोपासक अहिंसा व्रत के पालक एवं प्रचारक सम्राट् सम्प्रति कही है। २ - ब्रह्मगिरिका द्वितीय लघुशिलालेख "धमें" के सिद्धान्त---देवताओं के प्रिय, इस तरह कहते हैं-माता और पिता की सेवा करनी चाहिये । प्राणियों के प्राणों का आदर दृढ़ता के साथ करना चाहिये (अर्थात जीव-हिंसा न करनी चाहिये । सत्य बोलना चाहिये, “धम्म” (धर्म) के गुणों का प्रचार करना चाहिये | इसी प्रकार विद्यार्थी को आचार्य की सेवा करनी चाहिये और अपने जाति भाइयों के प्रति उचित बर्ताव करना चाहिये यही प्राचीन धर्म की रीति है । इससे आयु बढ़ती है और इसी के अनुसार मनुष्य को चलना चाहिये । पड नामक लिपिकार (लेखक) ने यह लेख लिखा है । ३—–देवताओं के प्रियदर्शी सम्राट् कहते हैं: -- प्राचीन काल में हर समय में और गुप्तचरों के समाचारों को सुनने की प्रथा न थी । मैंने इस प्रकार का नियम कर जिस समय में - खाने के समय, विश्राम के समय, शयनागार में, एकान्त में अथवा चारी लोग जिनके ऊपर प्रजा विषयक काय्यों का भार है मुझ से मिल सकते हैं। मैं अपनी प्रजा के सम्बन्ध की सब बातें उन से जान लेता हूँ। मेरी कही हुई शिक्षाओं को मेरे धर्म महामात्र लोग प्रजा से कहते हैं । इस प्रकार मैंने यह आज्ञा दी है कि, जहाँ कहीं धर्मोपदेशकों की सभाओं में मतभेद अथवा मगड़ा हो, उसकी सूचना मुझे सदा मिल जानी चाहिए। क्योंकि, न्याय के प्रबन्ध में जितना भी उद्योग किया जाय कम है । मेरा यह कर्तव्य है कि शिक्षा द्वारा लोगों का उपकार करूं । निरन्तर उद्योग और न्याय का उचित प्रबन्ध ही सर्व साधारण के हित की जड़ है । और इससे अधिक फलदायक कुछ नहीं है । मेरे सब यत्नों का मुख्य उद्देश्य है कि, मैं सर्व साधारण के ऋण मुक्त हो जाऊं । जहाँ तक मुझसे हो सकता है मैं उन्हें सुखी रखने का प्रयत्न करता हूँ। और इस बात का भी प्रयत्न करता हूँ कि, भविष्य में भी स्वर्गसुख प्राप्त करें । भविष्य में मेरे पुत्र और पौत्र भी सर्व साधारण के हित में रत रहें । इसी उद्देश्य से मैंने यह लिपि खुदवाई है । राजकार्य, प्रजाकीय दिया है कि, चाहे बाटिका में वे कर्म - ४ - देवताओं के प्रिय राजाप्रियदर्शी की यह बड़ी इच्छा है कि, सब स्थानों में सब जातियां सुखी रहें | सब लोग समान रीति से इन्द्रियों का दमन करें। और आत्मा को पवित्र बनावें । मनुष्य संसार की बातों में अधीर है । संसारचक्र के कारण वह जितनी बातें कहता है उतनी कर नहीं सकता । फिर भी आंशिक रूप से उसे कर्त्तव्य पालन में रत रहना चाहिए । दान एक श्रेष्ठ धर्म है । लेकिन जो लोग आर्थिक I ३०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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