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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
कहा कि जिस प्रकार तुमने मांगा था वह न तो मुझे दिलाना योग्य है और न श्रपको ग्रहण करना ही योग्य है। इसके अलावा सूरिजी ने और भी कहा कि हे देवी तुमने पूर्व जन्म में कुछ अच्छे कार्य किये थे उसकी वजह से तो तुम्हें देवयोनि प्राप्त हुई है और अब ऐसे जघन्न कार्य में रत हो कर न जाने किस योनि में जन्म लोगी इत्यादि, हित वचनों से महात्मा ने ऐसा प्रतिबोध दिया कि कुमारिका के शरीर में रही हुई देवी को सर्वजनों के समक्ष उपकेशपुर के महावीर मन्दिर की पूर्ण भक्त बना दी। देवी सम्यकत्व धारिणी हो गई, इतना ही क्यों ? देवी ने यहां तक प्रतिक्षा कर ली कि मांस मदिरा तो क्या ? पर मैं किसी लालपुष्प व लालवस्त्र को भी ग्रहण न करूंगी। बाद में देवी ने उपस्थित लोगों के समक्ष कहा कि उपकेशपुर स्थित श्रीस्वयंभू महावीर भगवान की मूर्ति को पूजेगा या रत्नप्रभसूरि और इनके शिष्य प्रशिष्यों की सेवा भक्ति करते रहेगा उसके लिए मैं सदैव उनके दुःखों को दलित करने के लिये तैयार रहूँगी ।
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इस चमत्कारपूर्ण घटना को देख कर पहिले जो जैन बने थे उनकी श्रद्धा दृढ़ मजबूत हो गई तथा और भी बहुत से लोगों ने जैन धर्म की बहुत कुछ प्रशंसा की और उन्होंने सूरिजी के उपदेश से मिध्या मत को त्याग कर जैन धर्म को स्वीकार कर लिया । अर्थात जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हुआ ।
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० पू० ४०० वर्ष
दिया कि तुम चंडिका का पूजन मारे जाते हैं अतः देवी पापिनी है। लोगों ने कहा तो निस्सन्देह यह सकुटुम्ब हमारा संहार कर देगी । सूरिजी के इस कथन पर श्रावकगण देवी की पूजा से कुपित हुई । वह रात दिन गुरु के छल छिद्र देखने
इसी प्रकार उपके गच्छ चरित्र में भी उल्लेख मिलता है यथा :एक दिन पूज्य आचार्यश्री ने देवी के उपासक भक्तों को उपदेश मत करो । क्योंकि इसके मन्दिर में हमेशा प्राणियों को कि हे प्रभो ! यदि हम लोग इस देवी की पूजा न करें सूरीश्वरजी ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा । विमुख हो गये । इस पर देवी सूरीश्वरजी पर बहुत लगी। एक दिन जब गुरुजी सायंकाल के समय बिना ध्यान के बैठे एवं सोए हुएथे तो देवी ने उनके नेत्रों में पीड़ा उत्पन्न कर दी। पूज्यसूरिजी ने योगबलद्वारा नेत्र पीड़ा का कारण जान गये और उस देवी के अपने पर ऐसा उपदेश दिया कि देवी स्वयं लज्जित हो गई। वह सूरिजी से इस तरह प्रार्थना करने लगी कि हे स्वामिन् ! मैंने ज्ञान भाव से प्रेरित हो आपका यह अपराध किया है, आप मुझे क्षमा करें। मैं अब फिर कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगी, हे विभो ! श्राप मुझ पर प्रसन्न हों। सूरिजी बोले देवी इतना रोष क्यों ? देवी ने कहा आपने मेरे भक्तों को मेरी पूजा से मना किया है। यदि आप मेरा अभीष्ट जो ( कड़द मड़ड़ ) मुझे दिलादो १ अन्यदोपासकाः पूज्यैः प्रोक्ताः माचण्डिकाऽर्चनम् । कुरुध्वं यदियाँ सत्व घात पातकिनी सदा ॥ स प्रभावा प्रभो! देवी, नार्च्छते यदि तद् ध्रुवम । हन्ति नः स कुटुम्बेन, प्येवं प्राहुरुपासकाः ।। अहं रक्षाँ करिष्यामि, त्युक्ते सूरिभिरर्चनात् । निवृत्ताः श्रावका: सर्वे, कुप्यतिस्माथ सा गुरौ ॥ छलं विलोकयन्त्यस्थात्सा गुरूणामहर्निशम् । सायं ध्यान विहीनानां, नेत्र पीड़ामकल्पयत् । विज्ञाय ज्ञान तो हेतुं, पूज्याः देवीमकीलयन् । तथा तथा स कष्टा सा, सूरिनेवं व्यजिज्ञपत् ॥ अज्ञान भाव विहितो ऽपराधः क्षम्यतां मम । न विधास्ये पुनः स्वामि, नेवं जातु प्रसीद नः ॥ वरि रूचे कथं रोषः ? सऽऽहमत्सेवकान् भवान् । अरक्षयन्मदभीष्टं, मदुक्त चेत्करिष्यसि ॥ लब्धेऽभीष्टे प्रभोऽवश्यं, वश्याते ऽन्वयिनामपि । भवित्रीति वदन्तीं ताँ, जगुराचार्य पुङ्गवाः ॥
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