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________________ वि० पू० ४१८ वर्ष ] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ६-प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी सूरिः षष्ठतमो बभूव गुणवान् रत्नप्रभो नामकः, सोप्यासीदधिकः प्रियो जिनमते विद्याधराणां प्रभुः। गत्वाउत्पलदेव नाम नृपति ख्यातोपकेशे पुरे, वंशी मन्त्रिवरं तयोहडमपि क्षत्रांश्च लक्षााधकान् ॥ दत्त्वा श्राद्धपट्ट महाजनगणं संस्थापयामास च, ये नैवात्र त ओसवाल पद वाच्या ओसवंशोद्भवाः । श्री सूरेरुपदेश वारि जलदैनित्यं तथा वर्षितम् , येनाद्यापि हि कीत्यते गुणगणः प्रातः महद्धिर्जनैः । .......wweenase .0000.0saneaoness' Are+ AURA प श्रीमान् विद्याधरकुलभूषण और अनेक विद्याओं के वारिधि थे। रथनुपुर नगर के राजा महेन्द्रचूड की महादेवीलक्ष्मी की रत्नकुक्ष से आपका जन्म हुआ था। आपका नाम रत्नचूड़ रक्खा गया था। आपकी बालक्रीड़ा बड़ी ही अनुकरणीय थी। विद्याभ्यास __ के लिये तो कहना ही क्या; क्योंकि, विद्याधरों में विद्या प्रचार का तो जन्म-सिद्ध अधिकार था । अतः आप अनेक विद्याओं के पारगामी ही थे । जब आपने युवकवय में पदार्पण किया तो आपके पिताश्री ने योग्य राजकन्या के साथ आपका लग्न कर दिया। आपका का दाम्पत्य जीवन बड़े ही सुख शान्ति में व्यतीत हो रहा था । आपके कई संतानें भी हुई थीं। राजा महेन्द्रचूड़ अपनी अन्तिमावस्था में अपने प्यारे पुत्र रत्नचूड़ को राजयोग्य सर्वगुणसम्पन्न जान कर अपना उत्तराधिकारी बना कर आप आत्म-कल्याण में जुट गये। विद्याधरों का नायक राजा रत्नचूड़ बड़ी शान्ति और न्याय पूर्वक राज्य सम्पादन कर रहा था। अपनी कुल परम्परा से ही आप जैनधर्म के परमोपासक थे । इतना ही क्यों पर तीर्थङ्कर देवों की भक्ति और मूर्तिपूजा का तो आपके अटल नियम था कि बिना पूजन किये श्राप अन्न जल भी ग्रहण नहीं करते थे जिसमें एक मूर्ति तो ऐसी थी कि जिसकी महत्त्वपूर्ण घटना इस प्रकार है। ___ जिस समय रावण ने महासती सीता का हरण किया था और इस कारण भगवान रामचन्द्रजी और वीर लक्ष्मण श्रादि ने लंका पर चढ़ाई की थी उस समय रत्नचूड़ के पूर्वज चन्द्रचूड़ नाम के विद्याधर भी भगवान रामचन्द्र के पक्ष में लंका गये थे और लंका की लूट में अन्य अन्य पदार्थों के साथ चन्द्रचड़ विद्याधर रावण के चैत्यालय से एक नीलम पन्नामय चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति ले आये थे। उसकी सेवा पूजा एवं उपासना क्रमशः परम्परा से भूपति करते आये थे उस नियमानुसार हमारे चरित्र नायक राजा रत्न चड़ भी बड़ी भक्ति के साथ उस मूर्ति की त्रिकाल पूजा कर रहे थे। कहा भी है कि 'यथा राजा तथा प्रजा' जब राजा धर्मिष्ट होता है तब प्रजा भी उसका अनुकरण अवश्य किया करती है। Jain Educatnternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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