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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष इनके अलावा गंधहस्तीकृत तत्त्वार्थ भाष्य के सम्बन्ध में मध्यकालीन साहित्य में कहीं २ उल्लेख मिलता है जैसे "धर्मसंग्रहणीटीका" आदि में “यदाह गंधहस्ती-प्राणपानौ उच्छ्वास निश्वासौ" इत्यादि गंधहस्ती के ग्रन्थों के भी अवतरण दिये हुये मिलते हैं। इससे स्पष्ट पाया जाता है कि पूर्व जमाने में गन्धहस्ती आचार्य ने जैनागमों पर विवरण जरूर लिखा था जिसको प्रोसवंशशिरोमणिश्रावकपोलक ने लिखवा कर जैनश्रमणों को स्वाध्याय करने के लिये समर्पण किया था पोलाक के साथ ओसवंश शिरोमणि विशेषण स्पष्ट बतला रहा है कि उस समय मथुरा में इस वंश की संख्या विशेष थी तब ही तो पोलाक को ओसवंश शिरोमणि कहा है। जब हम ओसवंश की वंशाललियों को देखते हैं तो पता मिलता है कि उस समय मथुरा में जैनमंदिर बनाने एवं जैनाचार्यों की आग्रहपूर्वक विनती करके चतुर्मास करवाने वाले बहुत श्रावक बसते थे जो हम आगे चल कर वतलावेंगे। तथा आय्य स्कन्दिल ने वाचना जैसा वृहद् कार्य उसी मथुरा में प्रारंभकिया था अतः यहां जैनों की घन वसति हो इसमें शंका ही क्या हो सकती है। प्रस्तुत पट्टावली में उपकेशवंश की उत्पत्ति के विषय में भी लिखा है कि: "भगवान महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष बाद पार्श्वनाथ की परम्परा के छ? पट्टधर आचार्य रतप्रभ ने उपकेशनगर में १८०००० क्षत्रिय पुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया, वहाँ से उपकेश नामक वंश चला। 'जैनकाल गणना० पृष्ट १६५' इस लेख से भी पाया जाता है कि वीरनिर्वाणात् ७० वें वर्ष में आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा उपकेशपुर में उपकेशवंश की उत्पत्ति हुई थी इसी प्रकार पं० हीरालाल हंसराज जामनगरवालों ने हेमवंत पट्टावली का आधार लेकर लिखा है:__"मथुरा निवासी अने श्रावकों मां उत्तम अने ऊसवंस मां शिरोमणि एवा पोलाक नामना आदित्यनागगौत्र-चोरडिया शाखा में भैंसाशाह नाम के चार पुरुष हुए और चारों ही नामी हुए जैसे १-वि० सं० २०९ में श्रीशत्रुञ्जयतीर्थ का विराट्संघनिकाला जिसकावर्णन नागोरीजी ने एवं डांगीजी ने अपने लेख में किया है २-वि० सं० ५०८ में अटारू ग्राम में भैसाशाह ने जैनमन्दिर बनाया जिसका शिलालेख मुन्शी देवीप्रसादजी की शोधखोज से प्राप्त हुआ और मुन्शीजी ने "राजपूताना की शोधखोज" नामक पुस्तक में विस्तार से मुद्रित भी किया है। ३-वि० सं० ११०८ में भैंसाशाह हुआ। आपके अपार लक्ष्मी थी और गदियाणा नाम का सिका चलाने से आपकी सन्तान 'गदइया' नाम से प्रसिद्ध हुई, वे अद्यावधि विद्यमान हैं। ४-विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में नागोरशहर में भैंसाशाह हुआ जिसके वृद्ध भ्राता 'बालाशोह' ने नागौर में भगवान ऋषभदेव का मन्दिर बनाया वह इस समय बड़ा मन्दिर के नाम से विद्यमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only 930 www.aantihary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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