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________________ घि० पृ० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समाधान-'मुनौयत नैणसी की ख्यात' में किसी भी स्थान पर यह नहीं लिखा है कि आबू के उत्पलदेव परमार ने श्रोसिय बसाई; किन्तु नैणसी की ख्यात से तो ओसियां की उल्टी प्राचीनता ही सिद्ध होतो है । देखिये "नैणसी की ख्यात" प्रकाशक काशीनगरीप्रचारिणी सभा पृष्ठ २३३ पर लिखा है किः "धरणी वराह का भाई उत्पलराय किराडू छोड़ कर ओसियां में जा बसा। सचियाय देवी प्रसन्न हुई और धन-माल दिया। श्रोसियाँ में देवल कराया।" इसकी टिप्पणी में लिखा है कि "वसंतगढ़ से प्राप्त हुये सं० १०९९ के परमारों के शिलालेख से पाया जाता है कि उत्पल राजा धरणीवराह का भाई नहीं किन्तु परदादा था, जिसका समय दशवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होना चाहिये।" __ इस प्रमाण से यही प्रमाणित होता है कि श्रोसियां नगर उत्पलदेव परमार के पूर्व भी समृद्धि-सम्पन्न नगर था। इसी कारण उत्पलदेव परमार ने किराडू छोड़ कर ओसियां में निवास किया। यहां केवल शंका का ही समाधान है। ओसियां कितनी प्राचीन है, यह हम आगे चल कर सिद्ध करेंगे। तात्पर्य यह है कि शंका करने वालों को पहले ग्रंथ का पूर्वापर सम्बन्ध देख लेना चाहिये ताकि उभय पक्ष के समय शक्ति का अपव्यय न हो। शंका नं० २-भगवान् श्रीपार्श्वनाथ की परम्परा में रत्नप्रभसूरि नाम के ६ आचार्य हुए हैं। यदि ओसवाल वंश के संस्थापक अंतिम रत्नप्रभसूरि मान लिये जायं तो क्या आपत्ति है ? इनका समय वि० की पांचवीं शताब्दी का है। यह समय ऐतिहासिक प्रमाणों से ओसवाल जाति की उत्पत्ति के समय से मिलता जुलता है । अतः अनुमान किया जा सकता है कि ओसवंश के संस्थापक अन्तिम रत्नप्रभसूरि हैं ? ___समाधान -भगवान् श्रीपार्श्वनाथ की परम्परा में रत्नप्रभसूरि नाम के ६ आचार्य हुये और अंतिम रत्नप्रभसूरि का समय ५ वीं शताब्दी का है, यह सत्य है । अतः कुछ समय के लिये मान भी लिया जाय कि श्रोसवालजाति के आधसंस्थापक अंतिम रत्नप्रभसूरि हैं फिर भी इस समय के सम्बन्ध में प्रमाण देने के लिये तो प्रश्न हमारे सामने ज्यों का त्यों खड़ा ही रहेगा न ? आद्यरत्नप्रभसूरि और अंतिम रत्नप्रभसूरि के बीच ९०० वर्षों का अन्तर है । अंतिम रत्नप्रभसूरि के समय के तो अनेकों ग्रन्थ आज भी मिलते हैं; परन्तु किसी भी ग्रन्थ या शिलालेख से यह पता नहीं चलता कि वि० की ५ वीं शताब्दी में अन्तिम रत्नप्रसूरि ने ओसवालवंश की स्थापना की हो, क्योंकि उस समय का इतिहास इतने अंधेरे में नहीं है। कारण, अन्तिम रत्नप्रभसूरि के समकालीन एवं आस पास के समय में हुए अन्याचार्यों के विषय पट्टावल्यादि ग्रन्थों में बहुत उल्लेख मिलते हैं । जब अन्तिम रत्नप्रभसूरिजी द्वारा एक प्रांत में इतना बड़ा परिवर्तन हो जाना और इस परिवर्तन के सम्बन्ध में उस समय के बने हुये ग्रंथों में गंध तक नहीं मिलना, यही प्रमाणित करता है कि यह घटना तत्कालीन ग्रंथ रचना के पूर्व सैंकड़ों वर्षों की होनी चाहिये । अन्यथा इतना महान परिवर्तन जो लाखों मनुष्य एक धर्म को छोड़ दूसरे धर्म की दीक्षा ले कदापि छिपा हुआ नहीं रह सकता । अतएव जिनके सम्बन्ध में प्रमाण की गन्ध तक न मिले उन्हें केवल कल्पना एवं अनुमान मात्र से ओसवाल वंश का संस्थापक मान लेना और आद्य रत्नप्रभसूरि के सम्बन्ध में अनेक प्रमाण मिलने पर भी उनको न मानना यह दुराग्रह के सिवाय क्या है ? उन प्रमाणों को लिखने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह वृहद् ग्रंथ प्रमाण रूप में ही लिखा गया है, एवं आद्योपान्त पठन करने के पश्चात् पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकेंगे। शंका नं० ३-ओसवाल बनाने के समय ओसियां में महावीर का मंदिर बना। उसी मंदिर में एव Jain Ed S ternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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