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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ४५२
अतः क्षमाश्रमण जी का इष्ट माथुरी वाचना पर ही विशेष था। यही कारण है कि क्षमाश्रमणजी ने संदीसूत्र की स्थविरावली की गाथा में कहा है कि --- "जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अढ्ढभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, ते वंदे स्वंदिलायरिए ।
क्षमाश्रमणजी किस वंश शाखा के थे इसके लिये देवद्धिंगणिक्षमाश्रमणजी के जीवन प्रसंग में लिखेंगे ।
उपरोक्त वाचना के अन्दर हमारे एक संदिग्ध प्रश्न का समाधान सहज ही में हो आता है । जो इमारी मान्यता थी कि सब से पहिले देवद्धिगणिक्षमाश्रमणजी ने ही आगमों को पुस्तकों में लिखवाये ये वास्तव में यह बात ऐसी नहीं है किन्तु क्षमाश्रमणजी के पूर्व भी आगम पुस्तकों पर लिखे गये थे । इसके लए कई प्रमाण भी मिलते हैं।
१-पाटलीपुत्र की वाचना के समय आगमों को पुस्तक पर लिखे गये थे या नहीं इसके लिये तो कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
२-महामेघवाहन चक्रवर्ति खारवेल के हस्तीगुफावाले शिलालेख से पाया जाता है कि उस समय अंगसप्तति का कुछ भाग नष्ट हो गया था जिसको खारवेल ने पुनः लिखाया।
३-आचार्य सिद्धसैनदिवाकरजी चित्तौड़ गये थे और वहाँ के स्तम्भ में आपने हजारों पुस्तकें देखी जिसमें से एक पुस्तक ले कर आपने पढ़ी भी थी । अतः पहिले ज्ञान पुस्तकों पर लिखा हुआ अवश्य था।
४-माथुरी वाचना एवं वल्लभी वाचना के समय पुस्तकों पर आगम लिखने का उल्लेख मिलता है। जिसको हम ऊपर लिख आये हैं ।
५-- अनुयोग द्वार सूत्र में पुस्तकों को द्रव्य श्रुत (ज्ञान) कहा जैसे
“से किं तं जाणयसरीरभधिअसरीखइरित्तं दव्यसु ? पत्तयपोत्थय लिहिअं" ६-निशंथसूत्र के बारहवाँ उदेशा की चूर्णी में भी लिखा है कि --
"सेहउग्गहणधारणादिपरिहाणि जाणिऊण कालियसुयट्टा, कालियसुपणिज्जुत्तिमिमित्त वा पोत्थगपणगं घेप्पति"।
७-योगशास्त्र की टीका में आचार्य हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं कि ---
"जिनवचनं च दुष्पमाकालवशादुच्छिन्नभायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन स्कन्दिलाचार्य प्रमृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम्"।
इन प्रमाणों से स्पष्ट पाया जाता है कि देवद्धिंगणिक्षमाश्रमण के पूर्व भी जैनाआगम पुस्तकों पर लिखे हुये थे। इतना ही क्यों पर क्षमाश्रमणजी के पूर्व कई ज्ञान प्रेमी श्रापकों ने आगमों को लिखा कर वे पुस्तकों जैन साधुओं को पठन पाठन के लिये अर्पण करते थे बाद में क्षमाश्रमणजी ने भी वल्लभी नगरी में आगमों के पुस्तकों पर लिखाया और वे विस्तृत रूप में होने से जैन समाज में विशेष प्रसिद्ध है।
आचार्य स्कन्दिल सरि]
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