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वि० सं० ५२ वर्ष ]
जैनागमों की वाचना
जैनधर्म में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि गुरु महाराज अपने शिष्यों को जैनागमों की वाचना देते हैं और शिष्य भी गुरु महाराज का विनय व्यवहार कर वाचना लेता है और उसको ही सम्यक्ज्ञान कहा जाता है । यदि कोई शिष्य गुरु महाराज के वाचना दिये विना ही आगम पढ़ लेते हैं तो उसको चतुर्मासिक प्रायश्चित बतलाया है X। कारण, जैनागम अर्द्ध मागधी एवं प्राकृत भाषा में है और उसमें भी कई सूत्र एवं शब्द तो ऐसे हैं कि जिनका यथार्थ अर्थ गुरुगम से ही जान सकते हैं। जिन लोगों ने जैनधर्म से पृथक् होकर नये नये मत पन्थ निकाले हैं इसका मुख्य कारण यही है कि उन्होंने जैनागम गुरु गम्यता से नहीं बाचे किंतु अपनी बुद्धि से शास्त्रों के वास्तविक अर्थ को न जानकर मनः कल्पना से अर्थ का अनर्य कर डाला है और बाद अभिनिवेश के कारण पकड़ी बात को नहीं छोड़ने से नये नये मत निकाल दिये हैं आज भी हम देखते हैं कि एक ही मान्यता वाले एक ही शब्द के पृथक् २ अर्थ कर आपस में लड़ते गड़ते हैं और आगे चलकर वे ही नये २ पंथ और मत स्थापन कर डालते हैं । अतः जैनधर्म की यह पक्की मर्याद है कि गुरु महाराज के दी हुई वाचना से ही शिष्य आगम बांचे ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
में
प्रत्येक तीर्थङ्कर अपने शासन समय गणधर स्थापन करते हैं इसका मतलब भी यही है कि वे गएधर अपने शिष्यों को आगमों की वाचना दें और यही मतलव गणिपद का है । उपाध्याय पद की तो और भी विशेषता है कि वह चतुर्विध श्रीसंघ को सूत्र अर्थ की वाचना दे । साधुयों की सात मंडली में भी वाचना का विधान है जैसे सूत्र वाचना अर्थ वाचना अर्थात् साधु शामिल होकर एक मंडली में बैठकर गुरु महाराज से सूत्र काल सूत्र वांचना और अर्थ काल में अर्थ वाचना ले। ऐसी वाचनायें तो प्रत्येक गच्छ में प्रत्येक दिन होती ही रहती हैं । पर जब काल दुकाल में प्रचलित वाचना बन्द हो जाती है तब एक विशेष वाचना की आवश्यकता रहती है यहाँ पर उस विशेष वाचना का ही प्रसंग है । और ऐसी वाचनाए निम्नलिखित हुई हैं। १--- आचार्य भद्रवाहु के समय पाटलीपुत्र नगर में पहिली वाचना हुई । उस समय गणधर रचित द्वादशांग में एकादशांग ठीक व्यवस्थित किये और बारहवां अंग के लिए आर्य स्थूलभद्र को दशपूर्व सार्थ और चार पूर्व मूल का अभ्यास करवाया। इस वाचना में गणधर रचित अंग सूत्र ज्यों के त्यों तों नहीं रहे थे । कारण, बारहवर्षीय दुकाल के कारण मुनिजन यथावत् श्रागमों को याद नहीं रख सके परन्तु जितना ज्ञान जिस जिस साधुओं को याद रहा उसको ही संकलना कर पुनः एकादशांग व्यवस्था किया इसके लिये देखो तिरयोगलिपइन्ना का पाठ
ते दाईं एकमेकं मयमयसेसा चिरंस दटुणम् । परलोगगमणपच्चागय व्व मण्णंति अप्पाणम् ॥२०॥ ते विर्ति एकमेकं, सज्झाओ कहस कित्तिओ धरति । दि हु उकालेणं अहं नट्ठो हु सज्ज्ञातो ॥ २१ ॥ जं जस्स धरह कंठे, तं परियडिकण सव्वेसिम् । तो रोहिं पिंडिताई, तहियं कक्कारसंगाइम् ||२२||
जे भिक्खू आयरिय- उज्याएहिं अविदिन गिरं आइयइ x X आवज्जइ चाउम्मासिगं परिहार-ठाणं उग्धाइयं ।
निशीथ सूत्र उद्देशा १६ वां
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[ श्री वीर परम्परा
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