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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ६८२-६९८ होता है कि जिसे वे नहीं कर सकते ? अर्थात् वे तीनों साधु धुरंधर विद्वान होगये जिसमें भी सबसे छोटे मल्ल मुनि की बुद्धि सब में श्रेष्ठ थी अस्तु पांचवाँ ज्ञानप्रवादपूर्व से पूर्व महर्षियों ने अज्ञान को नाश करने वाला नयचक्र नामक ग्रन्थ का उद्धार किया। जिसके बारह आरारूप बारह विभाग हैं और आद्योपान्त में जिन चैत्य की पूजा का विधान भी आता है । प्रस्तुत ग्रन्थ पुस्तकारूढ़ कर एकान्त में गुप्त रक्खा गया था। बिना गुरू की श्राज्ञा कोई भी उसको पढ़ नहीं सकता था । एक समय गुरुमहाराज ने विचार किया कि यह गल्न मुनि अपनी चपलता के कारण कभी निषेध की हुई पुस्तक पढ़ लेगा तो इसको बड़ा भारी संताप होगा । अतः साध्वी दुर्लभादेवी के समक्ष गुरु महाराज ने मल्ल मुनि से कहा कि मुने ? तुम इस पूर्वाचार्य निषेध की पुस्तक को नहीं खोलना एवं नहीं पढ़ना इत्यादि हितशिक्षा देकर आचार्य जिनानन्द ने यात्रार्थ वहाँ से विहार करदिया । पीछे से बालभाव के कारण श्राचार्य की निषेध की हुई पुस्तक माता (दुर्लभासाध्वी ) की अनुपस्थिति में मल्लमुनि ने खोल कर पहिले पन्ने का पहिला श्लोक पढ़ा ““नेधि नियमभंगवृत्ति व्यतिरिक्तत्वादनर्थ कम वोचत् । जैनादन्यच्छासन- मनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥' मुनि मल्ल इस श्लोक का अर्थ विचारता ही था कि उसके हाथ से श्रुत देवता ने पुस्तक खींच कर लेली | इस हालत में मुनि मल्ल चिंतातुर होकर रोने लग गया । यह खबर साधी दुर्लभा अर्थात् मुनि मल्ल १ चारुचारित्रपाथोधिशम कल्लोलकेलितः । सदानन्दो जिनानन्दः सूरिस्तत्राच्युतः श्रिया ॥ ६ ॥ अन्यदा धनदानाप्तिमत्तश्चिचे छलं वहन् । चतुरङ्गसभावज्ञामज्ञातमदविभ्रमः ॥ ७ ॥ चैत्ययात्रासमायातं जिनानन्दमुनीश्वरम् । जिग्ये वितंडया बुद्धया नन्दाख्यः सौगतो मुनिः ॥ ८ ॥ पराभवात्पुरं त्यक्त्वा जगाम वलभीं प्रभुः । प्राकृतोऽपि जितोऽन्येन कस्तिष्ठत्तरपुरांतरा ॥ ९॥ तत्र दुर्लभदेवीति गुरोरस्ति सहोदरी । तस्याः पुत्रास्त्रयः सन्ति ज्येष्ठटो जिनयशोऽभिधः ॥ १० ॥ द्वितीयो यक्षनामाभून्महलनामा तृतीयकः । संसारासारता चैषां मातुलैः प्रतिपादिता ॥ ११ ॥ पूर्वर्षिभिस्तथा ज्ञानप्रवादाभिधपंचमात् । नयचक्रमहाग्रन्थपुर्वाच्चक्रे तमोहरः ॥ १४ ॥ विश्रामरुपास्तिष्ठन्ति तत्रापि द्वादशारकाः । तेषामारंभपर्यन्ते क्रियते चैत्यपूजनम् ॥ १५ ॥ किंचित्पूर्वगतत्वाच्च नयचक्रं विनापरम् । पाठिता गुरुभिः सर्वं कल्याणीमतयोंऽभवत् (न्) ॥ १६ ॥ एष मल्लो महाप्राज्ञस्तेजसा हीरकोपमः । उन्मोच्य पुस्तकं बाल्यात्सस्वयं वाचपिष्यति ॥ १७ ॥ तत्तस्योपद्रवेऽस्माकमनुतापोऽतिदुस्तरः । प्रत्यक्ष तज्जनन्यास्तज्जगदे गुरुणा च सः ॥ १८ ॥ वसेदं पुस्तकं पूर्वं निषिद्ध मा विमोचयः । निषिद्धति विजहस्ते तीर्थयात्राचिकीर्षवः ॥ मातुरप्यसमक्ष स पुस्तकं वारितद्विषन् । उन्मार्ग्य प्रथमे पत्रे आयमेनानवाचयत् ॥ २० ॥ निधिनियमभगं वृत्तिव्यतिरिक्त त्वादनर्थक्रमवोचत् । जैनादन्यद्वासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥ २१ ॥ अथं चिन्तयतोऽस्याश्च पुस्तकं श्रुतदेवता । पत्र चाच्छेदयामास दुरंता गुरुगीः क्षतिः ॥ २२ ॥ इतिकर्तव्यतामूढो मल्लश्चिल्लत्वमासजत् । अरोदीत् शैशवस्थित्या किं बल देवतैः सह ॥ २३ ॥ पृष्टः किमिति मात्राह व तात्पुस्तकं ययौ । संघो विषादमापेदे ज्ञात्वा तत्तेन निर्मितम् ॥ २४ ॥ आत्मनः स्खलितं साधु समाचरयते स्वयम् । विचार्येति सुधीर्मल आराप्नोत् श्रुतदेवताम् ॥ २५ ॥ गिरिषण्डलनामा स्ति पर्वतस्तदुग्हान्तरे । रुष्यनिष्यावभोक्ता स षष्टः पारणकेऽभवत् ॥ २६ ॥ प्र० च० १९ ॥ आचार्य मल्लबादी और नयचक्र ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ७१३ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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