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________________ वि० सं० ६८२-२९८ वष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास २५ प्राचार्य सिद्धसूरि (चतुर्थ) श्रेष्ठी श्रेष्ठ गुणन्वितो दिनमणिर्गोत्रे स्वकीये मतः आचार्यस्तु स सिद्धसूरिरभवत् सिद्धेः सुवर्णस्य च ॥ स्वामी दीक्षित एव गतवान् विद्यासमुद्रस्तथा । यत्नो येन कृतः स्वत्तः सविपुत्नो जैनीयधर्मोन्नतौ ॥ ® चार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज एक सिद्ध पुरुष ही थे। अनेक विद्यायें और लब्धिये तो या आपको स्वयं वरदाई थी। मंत्र यंत्र में श्राप सिद्धहस्त थे । श्राप जैसे विद्वान थे वैसे श्राप ® धर्म प्रचारक भी थे। आपश्री ने अनेक सिद्ध कार्य करते हुए धर्म के उत्कर्ष को खूब बढ़ाया था । आपका जन्म उपकेशपुर नगर के महाराज उत्पलदेव की सन्तान परम्परा के श्रेष्टि गोत्रीय शाह जैता की गृह देवी एवं धर्मपरायण चम्पादेवी की पवित्र कुक्ष से हुआ था। आपका नाम सारंग था। शाह जैता विशाल कुटुम्ब वाला होने पर भी उसके पूर्वभव की ऐसी कोई अन्तराय थी कि द्रव्य के लिये अनेक प्रयत्न करने पर भी उसका गुजारा बड़े ही मुश्किल से चलता था। निर्धन लोगों के घर में जैसे दरिद्र का वास होता है वैसे ही क्लेश भी अपना अड्डा जमा बैठता है । इन दोनों से शाह जैता महान् दुःखी रहता था। एक समय आचर्य देवगुप्त सूरिजी का पधारना उपकेशपुर में हुआ। समय पाकर शाह जैता ने सूरिजा की सेवा में आकर अपनी दुःख गाथा कह सुनाई। इस पर सूरिजी ने कहा जैता ! जीवों के सुख और दुःख पर्वसंचित कर्मानुसार होते हैं पर न तो सदैव दुःख रहता है और न सुख ही रहता अर्थात् सुख और दुःख का चक्र चलता ही रहता है। सामग्री के होते हुए भी जीव पुन्य संचय नहीं करते हैं उसका ही यह फल है फिर भी आत्मा में अनंत शक्ति है । कैसा ही कर्म क्यों न हो उसे हटा सकता है । दूसरे दुःख अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है तब समझ लेना चाहिये कि अब इसका अन्त होने वाला है । तेरे कुछ नियम व्रत भी है या नहीं ? शाह जैता ने कहा प्रभो ! मेरी इच्छा तो बहुत रहती है पर सांसारिक प्रपंच के कारण मैं कुछ कर नहीं सकता हूँ । सूरिजी ने कहा जैता। पर्वभव में तो कुछ नहीं किया जिसका फल यहां भुगत रहा है । यदि इस भव में भी कुछ नही करेगा तो भविष्य में क्या पावेगा । अतः तुमको धर्म आराधन अवश्य करना चाहिये । जैता ने कहा तथास्तु, जैसे मेरे से बन सके वैसा रास्ता बतलाइये। सूरिजी ने कहा कि जैता श्रावक का आचार है कि कम से कम हमेशा परमेश्वर की पजा और एक सामायिक तो करनी हो चाहिये। जैता ! परमेश्वर की पूजा इस भव और परभव में हित सुख और कल्याण का कारण है और सामायिक से जीव को शान्ति मिलती है। सूरिजी और जैता के वीच बातें हो रही थी इतने में सारंग भी श्रा गया । जिसको देख सूरिजी ने कहा जैता यह लड़का कौन है ? इसकी भाग्यरेखा इतनी जोरदार है कि यह कोई प्रभाविक पुरुष होगा ! जैता ने कहा पूज्यवर ! यह आपका लघु श्रावक है। सूरिजी जान गये कि यह जैता का पुत्र है । शाह जैता सूरिजी के शुभ वचन सुनकर बड़ा खुश हुआ । उसके दिल का सब फिक्र तो ६८४ ___ [ आचार्य देवगप्रसार का जैता को उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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