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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२-६९८
चोरों की भांति भाग छूटा। मनुष्य का भाग कैसे खुलता है और नीचे गिरा हुआ मनुष्य किस कदर उच्च स्थिति को पहुँचता है और गुरू महाराज का वचन कैसे सिद्ध होता है जिसको आप आगे के पृष्ठों पर पढ़ोगे कि सारंग का जीवन एक उदाहरण रूप बन जाता है।
सूरिजी ने कुछ अर्सा ठहर कर बिहार कर दिया ! पीछे एक समय सारंग अपने भाइयों से अनबन के कारण एक दिन बिना किसी के कहे घर से निकल गया। सारंग के घर में था भी तो क्या कि कुछ रास्ते के लिये साथ ले जाता फिर भी सारंग को अपनी तकदीर पर भरोसा था । वह चलता चलता जा रहा था मार्ग में एक सिद्ध पुरुष का साथ हो गया । वस सारंग की तकदीर खुलने का यह एक निमित्त कारण था, सारंग सिद्ध पुरुष के साथ हो गया और चलते हुए एक दिन काही विश्राम लिया, भाग्यवशात् सिद्ध पुरुष बीमार होगया यहां तक कि उसे के जीने की आशा तक भी छूट गई । परन्तु सारंग ने उस सिद्ध पुरुष की इतनी चाकरी की कि वह मरने से बच गया। इसमें उपादान कारण तो उसका आयुष्य ही था पर निमित्त सारंग का भी साथ था। ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य है कि अपने निमित्त से दूसरों का भला हुआ हो तो उसके उपादान कारण को ही समझे और दूसरे के निमित्त से अपना भला हुआ हो तो उस निमित्त कारण को याद करे । तात्पर्य यह हुआ कि अपने निमित्त से दूसरों का भला हुआ हो तो उसे भूल जाना कि इसका उपदान ही अच्छा था मैं तो केवल निमित्त कारण ही था और दूसरे के निमित्त से अपना भला हुआ हो तो उस निमित्त को हमेशा स्मरण में रखना । और बन सके तो प्रत्युपकार करे।
सिद्ध पुरुष भी एक ज्ञानी था उसने सारंग का बड़ा भारी उपकार माना जिसके प्रत्युपकार के लिये उसने सोचा कि मैं इसका बदला कैसे दे सकू ? सिद्धपुरुष ने सारंग को एक सुर्वणसिद्धविद्या प्रदान की सारंग ने कहा कि मैंने अपने कर्तव्य से अधिक कुछ भी नहीं किया अतः यह विद्या आप अपने पास ही रहने दीजिये और देना ही है तो किसी योग्य पुरुष को दीजिये कि इसका सदुपयोग हो सके। सारंग के निष्कपट और निस्पृहता के वचन सुन सिद्ध पुरुष को उस पर और भी श्रद्धा बढ़ गई । और उसने सुवर्ण सिद्ध विद्या आम्नाय के साथ सारंग को देदी । बस, फिर तो था हो क्या सारंग ने उस विद्या द्वारा पुष्कल सुवर्ण बनालिया और उस सुवर्ण द्वारा अनेक निराधार गरीबों का उद्धार कीया। कारण, जिस मनुष्य ने गरीबीदेवी को देखी हो उसको ही अनुभव होता है कि गरीबाई कैसे निकाली जाती है। सारंग घूमता घूमता सोपार पट्टन में आया। यद्यपि वहाँ सारंग के जान पहिचान वाला कोई नहीं था पर उसके पास था सुवर्ण का खजाना और परोपकार की बुद्धि कि सारंग सर्वत्र प्रसिद्ध होगया । कुछ दिन ठहरने से कई लोगों से परिचय भी हो गया । कई लोगों ने अपनी कन्या की सारंग के साथ सादी करनी चाही । पर सारंग ने इसे स्वीकार नहीं किया । सारंग ने वहां रहकर शुभकार्यों में खूब सुवर्ण व्यय किया कि सारंग की कीर्ति सर्वत्र फैल गई। कहा है कि " सर्वगुणाकांचानमाश्रयन्ति"। सारंग महावीर देव की यात्रार्थ एक संघ लेकर तीन वर्षों से वापिस उपकेशपुर आया यहाँ तक उपकेशपुर में सारंग का कुछ भी पता नहीं था । शाह जैता के तेरह पुत्र थे सारंग को याद भी कौन करता था । पर जब उयकेशपुर का संघ, संघ आया जान कर उसको वधाने के लिये गया तो संघपति की माला सारंग के शुभ कंठ में सुशोभित देखी तब जाकर लोगों को मालूम हुआ कि यह तो शाह जैता का पुत्र सारंग है। अतः लोगों ने जाकर जैता को वधाई दी कि तुम्हारा पुत्र सारंग संघ लेकर आया है, इसको जैता अपनी निर्धनता की मस्करी हो
सारंग और सिद्ध पुरुष ]
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