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(अर्थ) लिखने में किसी लेखक की गलती हो गई हो तो उसको सुधारने के लिए हमारे पास कोई भाषा-ज्ञान का साधन नहीं था। और ऐसे कई उदाहरण बन भी चुके हैं। जैसे:
१-निशीथ सूत्र के ११वें उदेशा में एक सूत्र का ऐसा अर्थ लिखा हुआ था कि साधु की बगल (कक्ख ) में रोग नहीं भावे वहां तक सूत्रों की याचना नहीं दी जाये। पूछने पर कहा गया कि ज्ञानी का वचन तहत सूत्रों को कई रहस्य होती हैं। बस इतना कह कर व्याख्यानदाता छुट गये परन्तु उसको सुधार लेने का ज्ञान उसमें नहीं था दर असल इसमें लिखने वाले की ही गलती थी कि उसने रोम के स्थान रोग लिख दिया था। वास्तव में होना चाहिये था रोम (बाल) पर लिखने बाले ने रोम के स्थान रोग लिख दिया। जब कि प्राकृत-संस्कृत भाषा का ज्ञान ही नहीं तो उस अशुद्धि की कैसे सुधार सकते हैं । वे तो अशुद्ध हो या शुद्ध हो पन्ने पर लिखे हुए अक्षरों को ही ज्ञानी के वचन मानते हैं।
२-एक मुनि उत्तराध्यान सूत्र का पांचवां अध्यायन व्याख्यान में बांच रहे थे, उसके गुर्जर टव्वा में लिखा हुभा था कि साधु जाव जीव स्त्री पाले । साधु ने भी व्याख्यान में पन्न' को पढ़ कर सुना दिया। श्रोताओं ने पूछा कि जब साधु ने स्त्री का त्याग किया है तो फिर वह पुनः स्त्री क्यों पाले ? मुनि ने उत्तर दिया कि वीतराग का ज्ञान स्याद्वाद है। सम्भव है इसमें भी सूत्र की कोई रहस्य हो । वास्तव में मूल पाठ का अर्थ यह था कि साधु जाव जीव तक चारित्र पाले किन्तु लिखने वाले वेतनी लेखक ने चारित्र के स्थान पर च अलग तोड़ दिया और रित्र के स्थान रि में मिला दिया, जिससे स्त्रि बन गया। जिसका अर्थ च अलग होने से पदपूर्ण ( पदपूर्ति) समझ लिया और स्त्री का अर्थ औरत करके कह दिया कि 'साधु जाव जीव स्त्री पाले।" इससे कैसा अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इसका मुख्य कारण भाषा-ज्ञान का अभाव ही है। आज भी यदि उन सस्ते वेतन दार लहियां के लिखी हुई सूत्र की प्रतियों को उठा कर देखे तो आप को ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायगे कि जिन्होंने अर्थ का अनर्थ कर दिया और पढ़ने वाले भी ऐसे अनभिज्ञ थे कि पन्ने पर लिखा हुआ पढ़ कर सुना दिया। उन लोगों की पंक्ति में मैं भी एक था।
स्थानकवासी समुदाय में मैं नौ वर्ष रहा था पर वहां पर कई बातों में माया कपटाई तथा एक मूर्ति के न मानने से सूत्रों के पाठ छीपाना अर्थ को बदलाना या व्यर्थ आडम्बर और धमाधम इत्यादि मुझे पसन्द नहीं थी। मेरी प्रकृति शुरू से ही-एकान्त एवं निवृति में रह कर ज्ञान-ध्यान करने की थी। जब आगमों का अध्ययन करने से मेरी श्रद्धामूर्ति पूजा की ओर झुकी तो मैंने उस समुदाय में दो वर्ष ओर रहा और इस विषय में बहुत शोध खोन की पर सिवाय अन्धपरम्परा के और कुछ भी नहीं देखा अतः उस को छोड़ दिया, किन्तु मैं उसी निवृत्ति को चाहता था। भाग्य वशात् मुझे एक ऐसे योगीश्वर मिल गए जो स्वयं अठारह वर्ष तक स्थानकवासी समुदाय में रह कर निकले थे और वे आचार्य विजयधर्म सूरीश्वरजी महाराज के पास संवेगी दीक्षा ली थी। आपका शुभ नाम था मुनिश्रीरत्नविजयजी महाराज । उस समय आप ओसियां तीर्थ पर रह कर अकेले योग साधन करते थे । भापके पास रहने से मेरी एकान्त में रहने की भावना तो सफल हो गई। पर भाषा शुद्धि के लिए जिस ज्ञान की मुझे अभिलाषा थी वह पूर्ण न हुई । कारण एक तो गुरु महाराज दीक्षा देकर थोड़े ही समय में मुझे ओसियां में रख कर बिहार कर गये । अब मैं अकेला ही रह गया जिसे एक तो स्थानकवासियों से निकाला तो मूर्तिपूजा की चर्चा छिड़ गई । दूसरे जहां जाता वहां व्याख्यान देना और भी क्रियाकाण्ड से समय बहुत कम मिलता था; उसमें भी मुझे पुस्तकें लिख कर छपाने का शौक लग गया था। भाषा शुद्ध न होने से विद्वान् लोग मुझे उपाछम्भ भी देते थे कि आपकी पुस्तकों का भाव अच्छा होने पर भी भाषा की अशुद्वियों से उनका उतना प्रभाव नहीं पड़ता है. कि जितना पड़ना चाहिये । फिर भी हमारे मारवाड़ी भाई अशुद्ध पुस्तकों को भी खूब अपनाग क्योंकि वे भी प्रायः अपठित ही थे। अर्थात् सरीखा सरीखी संयोग मिल गया यही कारण था कि मेरी पुस्तकों की ऊपरा ऊपरी भावृतियों छपती गई । खैर उस समय मैं अकेला ही था, किसी की सहायता भी न थी। इस परिस्थिति में मेरे दो वर्ष समाप्त हो गये।
तीसरे वर्ष मैंने गुरु महाराज की सेवा में सूरत में चातुर्मास किया वहां पढ़ाई करने का भी सुअवसर था किन्तु व्याख्यान यहां भी मुझे ही देना पड़ता था। तथापि एक पण्डित रख कर संस्कृत मार्गोपदेशिका पढ़ना प्रारम्भ किया। प्रथम भाग पूरा कर द्वितीय भाग के कई पाठ हुए, इतने में चातुर्मास ख़त्म हो गया और मैंने तीर्थराज श्री शत्रुजय की
यात्रार्थ विहार कर दिया। रास्ते में कई साधुओं से भेंट हुई तथा गुर्जरवासी साधु-साध्वियों का प्रायः शिथिलाचार देखा तो इस Jain Education International For Private & Personal Use Only
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