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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष उपकेश वंश उपकेश वरा-यह महाजन संघ की एक शाखा है। प्राचीन साहित्य में उपकेशवंश के उऐश, उकेश, उकेशी, उकेशीय, उकोसिय, और उपकेश एवं नाम मिलते हैं और उनके उत्पन्न होने के कारण इस मुजब हैं : १-उस-श्रोसवाली भूमि पर जिस नगर को आबाद किया उसे ऊस-ओन-उऐश कहा, यह उस ओसवाली भूमि का ही द्योतक है । तत्पश्चात उपकेशपुर निवासी लोग उपकेशपुर छोड़ कर अन्य नगरमें जा वसने के कारण वहाँ के लोग उस उपकेशपुर से आये हुये समूह को उपकेशवंशी कहने लग गये और यह बात है भी स्वभाविक, जैसे : ___कोरंटनगर से कोरंटवाल, पालीनगर से पलिलवाल, खंडवा से खंडेलवाल,श्रीमाल नगर से श्रीमाली, अग्रह से अग्रवाल, महेश्वरी से महेसरी, रामपुर से रामपुरिया, साचोर से सांचोंरा, मेड़ता से मेड़तवाल, प्राग्वट से प्राग्वटवंश, इस प्रकार उपकेशपुरवासियों का नाम उपकेशवंश हो गया । २-उकेश- यह उऐश का रूपान्तर प्राकृत भाषा वालों ने उकेस लिखा है। ३-उपकेश-उऐश और उकेस को संस्कृत भाषा वालों ने अपनी सहूलियत के लिये उपकेश लिखा है। यह तीनों शब्द नगर के नाम के साथ व्यवहृत किये हैं जैसे : १-उपकेशपुर के लिये उए रापुरे समायती "उपकेशगच्छ पट्टावली" उकेशपुरे वास्तव्य "उपकेशगच्छ चरित्र" श्रीमत्युपकेशपुरे "नाभिनन्दन जिनोद्धार" २-उपकेशवंश के लिये उएशवंशे चंडालिया गोत्रे- "बा० पूर्णचन्दजी सम्पादित शिला० नं १२८५ उकेशवंशे जांघड़ा गोत्रे-- "बा० पू० ना० स० शि० नं. ४८० उपकेशवंशे श्रेष्टिगोत्रे "ब० पू० च. स. शि.नं. १२५६ ३-उपकेशगच्छ के लिये उएश गच्छे श्री सिद्धिसूरिभिः बुद्धिसागर सूरि सं० लेखाँक ५५८" उकेशगच्छे श्री कक्कसूरि सन्ताने , , , १०४४" उपकेशगच्छे श्री कुकुन्दाचार्य सन्ताने , , , १९५" इस महाजन संघ के कई लोग व्यापार करने लगे तो गुर्जरादि प्रान्तों में उनको वाणिया कहने लगे, पर इससे उन लोगों का महत्व कम नहीं हुआ था। कहा है कि "लिये दिये लेखे करी, लाख कोट धन धार, वणिक समों को नहीं, भरण भूप भंडार" बीस वसा नहिं वणिक जीमे जो झूट बोले, वीस वसा नहिं वणिक पेट नो परदो खोले। बीस वसा नहिं वणिक उतावलियो जे थाये, वीसवसा नहिं वणिक बनता सूविहि पाये ॥ वली वीस वसा ते वणिक नहिं चढ़यो रावले जाणिये,जे सत्य तजे सामल कहे वीस वसा नहिं वाणियो। १७ Jain Education International १२९ For Private & Personal Use Only www.gainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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