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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
भगवान महावीर की परम्परा ५-भगवान महावीर के पांचवे पट्ट पर आचार्य यशोभद्ररूरि महा प्रतिभाशाली हुये । आप तुगियन गोत्र के वीर थे । आपने संसार को असार जान आन्तरिक वैराग्य भाव से प्रार्य शय्यंभवसूरि के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् अभिरुचि और परिश्रम द्वारा आगमों का अध्ययन किया तो श्राप द्वादशांग के पारंगत हो गये थे, जिसमें स्वमत परमत के आप पूर्ण रूपेण ज्ञाता थे। आपने अपने परोपकारी जीवन में शासन की उन्नति के साथ अनेक भव्यों का उद्धार किया। वादी प्रतिवादियों के साथ शास्त्रार्थ में आप सदैव ही विजयी रहते थे। आपके समय जैनधर्म का चारों ओर प्रचार हो रहा था। वादियों पर तो आपकी इतनी छाप पड़ती थी कि वे आपका नाम सुन कर दूर दूर भागते थे । वेदान्तियों का मत फीका सा पड़ गया था । बोद्धभिक्षु यत्र-तत्र घूम २ कर अपना प्रचार बढ़ाने की कोशिश करते थे, पर जैनश्रमण जहाँ तहाँ खड़े कदम उपदेश कर जनता को सन्मार्ग पर लाने में प्रयत्नशील रहते थे, इत्यादि ।
श्राचार्य यशोभद्रसूरि के शासन में यों तो हजारों मुनि आत्म-कल्याण कर रहे थे पर एक अग्निदत्त नाम का मुनि शासन का ऐसा शुभचिन्तक था कि वह वर्तमान ही नहीं पर भविष्य के लिये भी शासन का सदैव विचार किया करता था। एक समय अग्निदत्त मुनि आचार्य यशोभद्रसूरि के पास आया और भविष्य का प्रश्न किया कि हे ज्ञानेश्वर ! भविष्य में जैन शासन का क्या हाल होगा इसका उद्योत करने वाला कौन होगा ? तथा जैन शासन को मांका दिखाने वाला भविष्य में कौन होगा ?
इस पर श्रुतकेवली एवं अवधिज्ञानी आचार्य श्रीयशोभद्रसूरि ने कहा कि हे अग्निदत्त ! भगवान महा. वीर के निर्वाण के बाद २९१ वर्ष जाने पर मौर्य मुकुटमणि सम्राट सम्प्रति होगा और वह भारत और भारत के बाहर जैनधर्म का खूब प्रचार करेगा और जैन मन्दिरों से मेदिनी मंडित कर जैनधर्म का उद्योत करेगा
और सम्प्रति राजा के बाद १६९९ वर्ष जाने पर बावीस गोटीले वणिक पुत्र होगा, वह श्रत धर्म की अवहेलना करेगा, उस समय हे अग्निदत्त ! श्रीसंघ की राशि पर अड़तीसवाँ धूम्रकेतु नामक दुष्ट ग्रह का संक्रमण होगा । उसकी स्थिति ३३३ वर्ष की होगी उसके बाद पुनः शासन का उदय होगा इत्यादि । इसका सारांश यह हुआ कि वीरात् २९१ में सम्राट सम्प्रति हुआ और उसने जैनधर्म का प्रचार बढ़ा कर शासन की खूब उन्नति की । बाद १६९९ वर्ष में श्रुतज्ञान की अवहेलना करने वाले २२ गोष्ठीक पुत्र हुये, अर्थात् २९१ + १६९९ = १९९० अर्थात् वि० सं० १५२० के बाद जिनप्रतिमा का विरोध करने वाले पैदा हुये । ठीक उस समय इधर तो भस्मगृह की स्थिति का अन्त होता है और वह बुझते हुये दीपक की भांति एक बार अपना
अन्तिम तेज दिखाने का साहस करता है और उधर श्रीसंघ की राशि पर धूम्रकेतु नामक दुष्ट ग्रह का संक्रमण होने का समय था । इन दोनों क्रूर ग्रह के कारण शासन में एक ऐसा बंड पैदा हुआ कि उन गोठीलों ने श्रुत, सिद्धान्त, टीका, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वगैरह, सूत्र मानने से इनकार कर दिया। इतना ही क्यों पर जैनधर्म के स्तम्भ रूप मंदिर मूर्तियों का भी विरोध किया; जिनसे जैन शासन को बड़ा भारी नुकसान हुआ तथा जैन. धर्म की क्रियाओं के विरुद्ध आचरणों के कारण संसार में जैनधर्म की हीनता भी करवाई। खैर, आगे चल कर उस धूम्रकेतु की अवधि पूर्ण होने के पहिले भी उसने जाते २ भी अपना प्रभाव इस कदर बतलाया कि जैन
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