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________________ वि० पू० २८८ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास धर्म के दया दान रूपी मुख्य दो सिद्धान्तों पर कुठाराघात करने वाले पैदा हुये; जब उन क्रूर प्रहों ने संघ राशि से विदा ली, तब जाकर पुनः जैनशासन का उदय होने लगा इत्यादि। आचार्य यशोभद्रसूरि की भविष्यवाणी सुन कर अग्निदत्त मुनि परम वैराग्य को प्राप्त हो तप संयम की आराधनापूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर दिया । x इत्यादि प्राचार्य यशोभद्रसूरिके शासनमें जैनधर्म की अच्छी उन्नति हो रही थी। अन्त में अचार्यश्री ने अपने पट्ट पर संभूतिविजय और भद्रबाहु दो मुनियों को प्राचार्य बनाकर वीर निर्वाण से १४८ वें वर्ष में जैनधर्म की आराधनापूर्वक स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। भगवान महावीर से यशोभद्रसूरि तक पट्टधर एक ही प्राचार्य होते आये, पर यशोभद्रसूरि ने अपने पट्टधर दो आचार्य बनाये थे;पर इसका यह अर्थ नहीं था कि उस समय जैन श्रमण दो विभागों में विभाजित हो दो समुदायें होगई थी पर जब तक संभूतिविजय गच्छनायक हो शासन चलाते रहे तब तक भद्रबाहु केवल गच्छ की सार, संभार का ही कार्य करते थे। संभूतिविजय सूरिका स्वर्गवास होने पर गच्छनायक पद भद्रबाहु को प्राप्त हुआ। भगवान् महावीर के छठे पट्ट पर आर्य संभूतिविजय हुए। आप मदर गौत्र दिवाकर पूज्य प्रभाविक आचार्य थे। आप भी चतुर्दश पूर्वधर श्रुत केवली द्वादशांग के धुरंधर विद्वान थे। आपने जैनधर्म का झंडा चारो ओर फहरा दिया था। आपके शासन समय भी हजारों साधु साध्वियाँ स्वकल्याणके साथ पर कल्याण करने में भागीरथ प्रयत्न किया करते थे। आपकी व्याख्यान एवं उपदेश शैली जैसी मधुर थी वैसी हृदयभेदी एवं रोचक भी थी । बौद्ध और वेदान्तियों के उपदेशक आपके सामने ऐसे तेजहीन दीखते थे कि जैसे सूर्य के सामने खद्योत । यही कारण था कि अनेक राजा महाराजा आदि मिथ्यात्व की राह छोड़ कर आपके सत्य पथ के पथिक बन अहर्निश जैनधर्म की आराधना करने में संलग्न रहते थे । आचार्य संभूतिविजय सूरि ने आठ वर्ष तक युग प्रधान पद पर रह कर जैन धर्म की बड़ी कीमती सेवा की और अन्त में वीर निर्वाण सं० १५६ में अनशन एवं समाधिपूर्वक नाशवान शरीर को त्याग कर स्वर्ग भूमि को सिधार गये। आचार्य भद्रबाहु-जब आर्य संभूतिविजय का स्वर्गवास हो गया तो चतुर्विध श्रीसंघ ने मिल कर आचार्य भद्रबाहु को गच्छनायक पद पर नियुक्त किया। आप प्राचीनगोत्र के महा प्रभाविक महापुरुष थे। ४ भणइ जस्सोभद्दसूरि, सुओवआगेण अग्निदत्त मुणि । सुणसु महाभाय जहा, सुअ हिलणमह जहाउदओ ॥ १॥ मुक्खाओ वीर पहुणो, दुसए हिय एग नवइ अहिएहिं । वरिसाइ सम्पइ नवो, जिण पडिमाराहओ हो ही ॥२॥ तत्तो अ सोलसएहिं, नवनवइसंजुएहि वरिसेहिं । ते दुट्टा वाणियगा, अवमन्नइस्संति सुयमेयं ॥ ३ ॥ तंमि समए अग्निदत्ता, संघसुयजम्मरासि नरकत्ते । अडतिसइमोदुठो, लगिस्सइधूमकउगहो ॥ ४ ॥ तस्स ठिइ तिन्निसया, तित्तिसा एगरासि वरिसाणं । तम्मियमीण पइटो, संघस्स सुयस्स उदआपच्छा ॥ ५॥ इय जस्सोभद्द गुरुणं, वयणं सोच्चामुणि सुवेरग्गे । पायहिणं कुणतो, पुणो पुणो वंदए पाऐ ॥ ६॥ आपुच्छिउणंसू रिं सुगुरु तह भद्दबाहु संभूयं । सलेहणा पवन्तो, गओग्गिदत्तो पढमकप्पे ॥ ७ ॥ वगचूलिया सूत्र का मूल पाठ Jain Ed.२४२nternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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