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वि० सं० ५२ वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पूजा प्रभावना प्रतिष्ठा संघ विधान वगैरह कि जिसमें धर्म का मिश्रण था वे कार्य तो आगमवादियों के शिर पर आ पड़े कि जिन कार्यों में वे पहले अनुमोदन के अलावा आदेश नहीं दिया करते थे वे स्वयं करने लगे और गृहस्थों के संस्कार वगैरह कार्य विधर्मी ब्राह्मणों के हाथ में देने पड़े । यही कारण है कि आज जैनों के घरों में संस्कार विधान एवं पर्व व्रत वगैरह होते वे प्रायः सब विधर्मियों के ही होते हैं अर्थात् वे सब कार्य उन विधर्मियों की ही विधि विधान से होते हैं।
निगमवादियों को नष्ट करने से जैन समाज को बड़ा भारी नुकसान उठा । पड़ा है । एक तरफ तो आगमवादियों को निगमवादी बनकर अपने संयम से हाथ धो बैठना पड़ा है क्योंकि जिन्होंने तीन करण तीन योग से प्रारंभ का त्याग किया था अब वे केवल उपदेश ही नहीं पर आदेश तक भी देने लग गये । दूसरी ओर जैन गृहस्थ लोग अपने धर्म से पतित बनकर सब कार्य विधर्मियों के विधि विधान से करने लग गये इतना ही क्यों पर उनके संस्कार ही विर्गियों के पड़ गये हैं।
निगमवादी जिन निगमशास्त्रों को मानते थे वे उपनिषद् के नाम से श्रोलखाये जाते थे और उन उपनिषदों में संसार मार्ग के साथ मोक्ष मार्ग का भी निर्देश किया हुआ है। जिसको मैं यहां दर्ज कर देता हूँ।
१-उत्तरारण्यक नाम प्रथमोपनिषद्-इसमें दर्शन के भेदों का निरूपण किया है ।
२-पंचाध्याय नाम द्वितीयोपनिषद्-इसके अलग अलग पांव अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में विविध प्रकार के विषयों का वर्णन है।
३ - बहुऋचनाप तृतीयोपनिषद्-इसमें चक्रवर्ती भरतमहाराज के निर्माण किये चार वेदों की श्रुतियों को असली रूप में दर्ज किया है।
४-विज्ञानघनार्णवनाम चतुर्थोपनिषद्-इसमें विविध प्रकार से ज्ञान का स्वरूप बतलाया है । ५-विज्ञानेश्वराख्य पंचमोपनिषद - इसमें ज्ञानी पुरुषों का विस्तार से वर्णन किया है। ६-विज्ञानगुणार्णवनाम षष्ठोपनिषद-- इसमें भिन्न २ प्रकार से ज्ञान के गुणों का अधिकार है। ७-नवतत्त्वनिदाननिर्णयाख्य सप्तमोपनिषद-इसमें नौ तत्व का विस्तार है। ८-- तत्वार्थनिधिरत्नाकरराभिधाष्टमोपनिषद-इसमें विविध प्रकार से तस्वों का स्वरूप है। ९- विशुद्धात्म गुण गंभिराख्य नवमोपनिषद्-इसमें शुद्ध आत्मा के ज्ञानादि गुणों का वर्णन है । १०-अर्हद्धर्मागमनिर्णयाख्य दशमोपनिषद् - इसमें तीर्थङ्कर भगवान के आगमों का अधिकार है । ११-उत्सर्गापवादवचनानैकाताभिधानकांदशमोपनिषद-इसमें उत्सर्गोपवाद एवं अनेकान्त मत है। १२-अस्तिनास्तिविवेक निगम निर्णयाख्य द्वादशमोपनिषद् -- इसमें सप्त भंभी का विस्तार है। १३--निज मनोनयनाहलादाख्यत्रयोदशमोपनिषद्-इसमें मन और चक्षु को आनंद देने वाला १४-रत्नत्रयनिदाननिर्णयनामचतुर्दशमोपनिषद्-इसमें ज्ञान दर्शन और चरित्र रूप रत्नत्रिय का०
१५-सिद्धागमसंकेतस्तबकारख्यपंचदशमोपनिषद्-इसमें आगमों में आये हुये सांकेतिक शब्दों का विस्तार से खुल्लासा किया है।
१६-भव्यजनभयापहारकनामषोडशोपनिषद्-इसमें भव्य जीवों के भय का नाश करने वाला वि० १७-- रागिजननिर्वेदजनकाख्य सप्तदशमोपनिपद्-इसमें रागीपुरुपों को वैराग्योत्पन्न होनेवाले वि०
१८-स्त्रीमुक्तिनिदाननिर्णयाख्याष्टादशभोपनिषद् -इसमें स्त्रियां भी मोक्ष प्राप्त कर सकें-तर्णन है । निगमवादियों के निगम ]
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