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________________ आचार्य सिद्धरि का जीवन ] [ ओसवाल सं० ६८२ - ६९८ घूम कर तलाश करते हुये एक जंगल में श्राये जहाँ पटली के वृक्ष बहुत थे । एक वृक्ष पर एक पक्षी मुँह खोल कर बैठा था तो अन्य जीव उसके मुंह में आ आ कर पड़ जाते थे । मन्त्रियों ने सोचा कि यह जंगल सुन्दर और अच्छा है । जैसे पक्षी के मुंह में बिना परिश्रम भक्ष आता है उसी प्रकार अपने राजा के राज में बिना परिश्रम ही अन्य राज श्राया करेंगे । ये सब हाल जाकर राजा उदई को कहा तो राजा ने वहाँ नगर बनाने का हुक्म दे दिया । बस ! फिर क्या देरी थी, थोड़े ही वर्षों में वहीँ सुन्दर नगर बन गया जिसका नाम पाटलीपुत्र रख दिया । राजा उदई अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में ले गया। राजा उदई ने पाटलीपुत्र में एक विशाल जैन मन्दिर भी बनवाया जिसमें भगवान नेमिनाथ की मूर्ति स्थापना करवाई तथा वहाँ से शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रार्थ एक विराट संघ निकाल कर नगर निवासियों एवं भावुकों को तीथों की यात्रा करवाई । ई० सं० १८८२ में पाटलीपुत्र ( पटणा ) के पास खुदाई का काम करवाते समय यक्ष की दो मूर्तियां निकाली जिनको कलकत्ता के म्युजियम ( अजायबघर ) में भारहूत गेलरी विभाग में रखी हुई हैं । सर केनिंगहोम का मत यह है कि मूर्तियां सम्राट अशोक के पूर्व की नहीं है पर जयसवालजी ने कहा कि ये दोनों मूर्तियें अशोक के पूर्व की हैं जिसका कारण वे बतलाते हैं कि पुराणों में राजा उदई को ज और नंद को अजय कहा है । जब उनके सिक्कों पर एक ओर श्रज और दूसरी ओर सम्राट नाम खुदा हुआ है । इससे यह माना जा सकता है कि ये दोनों मूर्तियाँ राजा उदई के समय की बनी हुई होंगी । राजा कूणिक का जो काम दक्षिण भारत को अपने राज में मिला लेने का था उसको राजा उदई ने पूरा करने की इच्छा की । अतः राजा उदई ने नागदशक सेनापति जो बड़ा वीर था द्वारा अपनी सेना सुसज्जित करवाई | राजा उदई ने स्वयं सेना के साथ विजय की आकांक्षा करते हुए प्रस्थान कर दिया और क्रमशः विजय करते हुए दक्षिण के अन्त तक पहुँच गया । राजा उदई ने अपने पुत्र श्रनिरुद्ध और नागदशक की वीरता पर प्रसन्न होकर आगे सिंहलद्वीप जाने की भी आज्ञा दे दी। और उनकी विजयी सेना ने लीला मात्र में सिंहलद्वीप के राजा विजय को विजय कर सिंहलद्वीप को अपने अधिकार में कर लिया। वहां पर राजधानी के लिये नयानगर बना कर, राजकुंवर की विजय की स्मृति के लिये नये नगर का नाम अनुरूद्रपुर नगर रख दिया। इसके बाद वहाँ का प्रबन्ध एक सुयोग्य व्यक्ति को सुपुर्द कर सेना सहित सब लौट कर अपने देश आगये । इस विजय यात्रा में कई दश वर्ष जितना समय लग गया । राजा उदई के शासन में राज सीमा सिंहलद्वीप तक फैल गई थी । उसी प्रकार व्यापार में भी आशातीत उन्नति हुई। राजा ने अपने नाम के सिक्क े भी चलाये और देश वासियों को सब तरह से उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया था इस भूपति का सम्बन्ध केवल भारत के नरपतियों के साथ ही नहीं था बल्कि पाश्चात्य देशों के राजाओं के साथ भी था । इस देश के विद्वान् पाश्चात्य प्रदेशों में जाते थे और उधर के विद्वान् इस देश में आकर राजा के अतिथि बनते थे । कला कौशल की भी उस समय अच्छी उन्नति हुई थी अर्थात राजा उदई के राज की सीमा उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक फैल गई और आपने शान्ति पूर्ण राज किया। अपना जीवन बड़ी ही शान्ति से व्यतीत किया। इतना ही नहीं बल्कि आपने अन्तिम अवस्था में पाप का प्रायश्चित करने के निमित्त यात्रार्थ निकल गये थे और आपकी जीवन यात्रा भी उसी यात्रा में समाप्त हो गई थी । मगदेश राजा उदाद का जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only ७२९ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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