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________________ वि० सं० २८२-२९८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कूणिक ने दक्षिण भारत को विजय करने का प्रयत्न भी किया था पर उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जाने के लिये सीधा रास्ता नहीं था। क्योंकि बीच में विंध्यांचल पर्वत था। राजा कूणिक ने उस पर्वत को तोड़ कर मार्ग निकालने की कोशिश की थी मगर श्राप उसमें सफल नहीं हो सके क्योंकि आपकी आयु: ने श्रापका साथ नहीं दिया । राजा कूणिक जैसे अपने साम्राज्य बढ़ाने में प्रयत्न शील था वैसे ही जैन धर्म के प्रचार को बढ़ाने में भी था। राजा कूणिक भगवान महावीर का परमभक्त था । इतना ही नहीं बल्कि राजा कूणिक का तो ऐसा नियम था कि जब तक भगवान महावीर कहाँ बिराजते हैं, खबर न मिले अन्न जल ग्रहण नहीं करता था । एक समय भगवान महावीर चम्पा नगरी की ओर पधारे। राजा कूणिक ने श्रापका इस प्रकार स्वागत किया कि जिसका विस्तृत वर्णन श्रीउबबाई सूत्र में किया है तथा मारहूत नगर के पास एक विशाल स्तूप भी बन वाया था जो आज भी अजातशत्रु के स्तूप के नाम से प्रसिद्ध है । राजा कूणिक ने नये मन्दिर बनवाये वैसे ही जीर्ण मन्दिरों की भी मरम्मत करवाई और शत्रुञ्जवादि तीर्थों की यात्रार्थ श्रंग एवं मगद से एक विराट संघ भी निकाला था । इत्यादि राजा कूणिक का जीवन विस्तृत है । कई लोग राजा कूणिक को वौद्ध धर्मी भी कहते हैं। और बोद्ध धर्म के ग्रंथों में बुद्धदेव के भक्त राजाओं के नामों में अजातशत्रु का भी नाम आता है इत्यादि । बोद्ध ग्रंथों में उनके भक्त राजाओं की नामा• वाली में कई जैन राजाओं के नाम भी लिख दिये हैं वह केवल अपने धर्म की महिमा बढ़ाने के लिये ही लिखा है खैर अजातशत्रु के विषय बौद्ध ग्रंथों मे ऐसे भी उल्लेख मिलता है कि बुद्धदेव और अजातशत्रु आपस में कैसा व्यवहार था जैसे कि बुद्ध के एक देवदश नाम का शिष्य था वह किसी कारण से बुद्ध से खिलाफ हो गया था और वह एक दिन अजातशत्रु के पास जाकर कहा कि आप अपने मनुष्यों को हुकम दें कि बुद्ध को मारू उसमें मदद दें इस पर राजा श्रजातशत्रु ने अपने श्रादमियों को ऐसा ही हुक्म दे दिया। यह तो हुए श्रजातशत्रु के बुद्ध प्रति भाव' । अब बुद्ध के भावों को देखिये एक दिन बुद्ध अपने भिक्षुकों कह रहा है कि भिक्षु ! प्रतिष्ठित राजकन्या का पुत्र मगद का राजा श्रजातशत्रु ! पाप का सहोदर और साक्षी है। पाठक ! सोच सकते हैं कि क्या परस्पर ऐसे विचार एवं भाव रखने वाले गुरु शिष्य कहला सकते हैं। कदापि नहीं । शायद अजातशत्रु कभी बुद्ध के पास चला गया हो और उन लोगों ने अपने भक्त राजाओं की नामाबली में उनका भी नाम लिख दिया है। तो कागज कलम स्याही उनके घर की ही होगा । पर श्रजातशत्रु जैनधर्मी होने के पुष्ट प्रमाण जैन साहित्य में विस्तृत संख्या में मिलते हैं । इनके अलावा उसने वीरस्तूप के पास अपनी ओर से स्तम्भ बना कर शिलालेख खुदवाया वह अद्यावधि विद्यमान है । ८ - राजा उदाई — कूणिक के बाद राजा उदाई राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए । राजा उदाई बड़ा ही वीर था । इसने राज की सीमा अपने बापदादों से भी श्रागे बडादी थी। राजा श्रेणिक ने गिरिवृज से अपनी राजधानी हटा कर राजगृह नगर बसा कर वहाँ कायम की। तब कौणिक ने अपनी राजधानी अंग देश की चम्पा नगरी में स्थापना की और राजा उदई को चम्पा नगरी पसंद नहीं आई। इस े अपनी राजधानी के लिये एक नयानगर बसाना चाहा। राजा की आज्ञा से मन्त्रियों ने भूमि की तलाश करने की जंगलों में घूम 1. Vinaya taxts, pt. iii, c, 243. 2. Rhys davids (Mrs) op. cit., e. 109. ७२८ Jain Education International कूणिक राजा किस धर्म को मानता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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