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वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
व्यापार में करोड़ों रुपये पैदा करते थे। दूसरे उनका सत्यशील और धर्म की श्रद्धाही ऐसी थी कि लक्ष्मी तो उनके घरों में दाशी बनकर रहती थी उन पुन्य के ही धारण किसी को चित्रावल्ली किसी को पारस किसी को तेजमतुरी और किसी को सुवर्ण सिद्धि रसायन मिल जाती थी और उनसे पैदा हुआ द्रव्य सद् कार्य में लगाया करते थे जैसे।
१-श्रीमान् जावड़ शाह को तेजमतुरी मिली थी उसने उस द्रव्य से पुनीत तीर्थश्री शत्रुजय महातीर्थ का उद्धार करवा कर आचार्य बज्रसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा करवाई।
२-श्रीमान् रांका वांका श्रेष्ठि को सुवर्ण सिद्धि रसायन मिली थी उसने कई जनोपयोगी कार्य किये ।
३-श्रीमान् पेथड़शाह को चित्रावली मिली जिससे उसने श्रीशत्रुजय का संघ निकाला और रास्ता में चलता चलता ८५ मन्दिरों की नावें लगवाई
४-श्रीजगडूशाह जिसको तेजमतुरी मिली जिससे वि० सं० १३१३-१४-१५ तीन वर्ष लगातार दुकाल पड़ा जिसमें करोड़ों द्रव्य खर्च कर देशबासी भाइयों के प्राण बचाये ।
५-श्रीसांरगशाह को पारस मिला था जिससे भी उसने कई दुकाल में अन्न और घास मंगवाकर मनुष्यों एवं पशुओं को प्राण दान दिया । और श्री शत्रुजय का विराट् संघ निकाला
इत्यादि अनेक ऐसे उदाहरण हैं कि इस ग्रन्थ में यथास्थान दर्ज कर दिये जायंगे । इनके अलावा भारतीय विद्वानों ने भी स्वरचित इतिहास ग्रन्थों में इस विषय का विस्तार पूर्वक उल्लेख किया है कि भारतीय व्यापारियों का विदेशों के साथ जल और थल मार्ग से विस्तृत प्रमाण में व्यापार होता था तथा भारतीय लोगों ने पश्वात्य देशों में अनेक वार भ्रमण किया इतनाही क्यों पर भारतियों ने तो विदेश में जाकर उपनिवेश स्थापना कर उन प्रदेशों को अपना निवास स्थान भी बना दिया था | इस विषय में सरस्वती मासिक के सम्पदक श्रीमहावीर प्रसादजी द्विवेदी जी ने एक महत्त्व पूर्ण लेख लिख सरस्वती मासिक में प्रकाशित करवाया है पाठकों के पढ़नार्थ उस लेख को ज्यों का त्यों यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है ।
प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता का प्रचार "पश्चिमी देशों के इतिहासज्ञ पुरावस्तुवेता, और पारदर्शी विद्वानों ने अभ्रान्त प्रमाणों और प्रबल युक्तियों से सिद्ध कर दिखाया है कि पृथ्वी मंडल पर विद्या, ज्ञान, कला, कौशल और सभ्यता का जन्मदाता भारतवर्ष ही है । वे भारतवासियों ही की सन्तानें थीं जिन्होंने प्राचीन समय में अनेक देश देशान्तरों में जाकर वहाँ सभ्यता फैलाई । प्राचीन भारत वासियों ही ने उन महान् और प्रभावशाली साम्राज्यों की स्थापना की । जिनका गौरव एवं वर्णन प्राचीन इतिहास के पृष्ठों पर ही नहीं लिखा गया किन्तु उनके स्मारक चिन्ह एशिया, यूरुप, अफ्रीका और अमरीका में आज तक वर्तमान हैं। वे स्मारक चिन्ह प्राचीन हिन्दू जाति ( भारतियों ) के महान अद्भुत कार्यों के प्रमाण हैं।
यजुर्वेद अध्याय ६ और मनुस्मृति वगैरह शास्त्रों में तथा कितनी ही कथायें हैं जिसमें भारतवर्ष के मनुष्यों और महात्माओं का अमरीका जाना सिद्ध होता है । महात्मा व्यासजी शुकदेवजी के साथ अमरीका गये और वहाँ कुछ काल ठहरे थे । शुकदेवजी यूरोप (जिसे प्राचीन आर्य हीरदेश कहते थे)
ईरान और तुर्किस्तान होकर लौट आये । इस यात्रा में तीन वर्ष लगे थे। यह वृत्तान्त महाभारत में Jain Edua ternational
[ भारतीय व्यापारियों का
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