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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैनाचार्य से जैनधर्म स्यीकार करने के बाद जैनधर्म की सेवा करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था । इतना ही क्यों पर सम्राट ने जैनधर्म का भारत में ही नहीं पर भारत के बाहर विदेशों में भी खूब प्रचूरता से प्रचार किया था । चन्द्रगुप्त ने जैसे कुएँ तालाब मुसाफिर खाने आदि सर्व साधारण के आराम के लिये बनवाये थे, इसी प्रकार जनता की धर्म भावना बढ़ाने के लिये एवं आत्म कल्याण के लिए अनेकों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी। वे भी केवल पूर्व प्रान्त में ही नहीं परन्तु उनके बनाये मन्दिर भारत और भारत के बाहर भी जनता का कल्याण कर रहे थे।
___ मारवाड़ में एक गांगांणि नाम का ग्राम है जो कि जोधपुर से १८ मील के फासले पर पहला बढ़ा नगर था । वहाँ पर एक पार्श्वनाथ का बहुत प्राचीन मंदिर जो सम्राट् सम्प्रति का बनाया हुआ मालूम होता है वि. सं. १६६२ का जेष्ठ भास में वहां के तालाब के पास भूगर्भ से कई मूर्तियां मिली थीं। उस समय के कई आठ मास के पश्चात् कविवर समयसुन्दर गणि यात्रार्थ गांगांणी गये और उन मूर्तियों का दर्शन एवं निरीक्षण किया और वहां का सब हाल उसी समय एक स्तवन में लिपिवद्ध कर दिया । वह स्तवन अभी हाल में अहमदाबाद निवासी वकील केशवलाल प्रेमचन्द जो पुरातत्व एवं इतिहास के अच्छे प्रेमी हैं द्वारा प्राप्त हुअ है जिसकी तीसरी ढाल में लिखा है :"मूलनायक बीजोबली, सकल सुकोमल देहो जी। मतिमा श्वेत सोना तणी, मोटो अचरज ये होजी॥१॥ अरजुन पास जुहारिया, अरजुन पुरी शृंगारोजी । तीर्थङ्कर तेवीस मो, मुक्ति तणो दातारोजी ॥२॥ चन्द्रगुप्त राजा भयो, चाणक्य दिरायों राजो जी । तिण यह बिंब भरवियो, साध्या आत्म काजो जी ॥१॥
अर्थात्-समाद् चन्द्रगुप्त ने भगवान पार्श्वनाथ की सफेद स्वर्णमय मर्ति बनाई भी जिसकी प्रतिष्ठा के लिये कविवर ने लिखा है कि सम्राट् सम्प्रति ने अपने गुरु आचार्य सुहस्ति सूरि से वी० सं० २७३ माष शुक्ला अष्ठमी रविवार के दिन करवाई थी ऐसी मूर्ति के पीखे खुदी हुई लिपि ( शिलालेख ) को कविवर ने अपनी नजर से देखी हैं जैसे कविवर ने अपने स्तवन में भी लिखा है।
पदपङ्क्तिमिमातेषां सुव्यक्तं मतिबिंबताम् , गवाक्षविवराधस्ता दृष्ट्व प्रत्ययमुद्वह ॥ सञ्जात प्रत्यये साज्ञि द्वितीयेऽहनि सद्गुरुः धर्म भाख्यातु माह्नास्त तत्र जैनमुनि नपि । निषेदुस्ते प्रथमतोऽप्यासनेष्वे व साधवाः स्वाध्यायायवश्य के नाथ नृपागममपालयन् ॥ ततश्च धर्म माख्याय साधवो वसतिं ययुः, इर्या समिति लीनत्वात्पश्यन्तोमुवमेवते ।। गवाक्षविवराधस्ताल्लोष्ठ चूर्ण समीक्षतम् , चाणक्यश्चन्द्रगुप्ताय तद्यथास्थम दर्शयत् ।। ऊचे च नैते मुनयः पापण्डि वदिहाययुः, तत्पाद प्रतिबिंबानी न दशान्ते कुतो अन्यथा । उत्पन्न प्रत्ययः साधून गुरून्मेनेऽथपार्थिवः, पापण्डिषु विरक्तोऽभूद्विषयेष्विवयोगवित् ।।
परिशिष्ट पर्व स्वर्ग ८ श्लोक ४२० से ४३५ x जैसा साहित्यसंशोधक त्रिमासिक पत्र वर्ष ५ अंक २ पृष्ट पर एक तपगच्छ पहावली मुद्रित हुई है इसमें भी इस बात का उल्लेख किया है कि सम्राट् सम्प्रति ने गांगणा में जिनमन्दिर करवाया था।
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