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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ज्ञान संयुक्त थे । २ - राजा प्रदेशी को प्रतिबोध करने वाले चार ज्ञान वाले थे इनके लिये कल्पसूत्र में उल्लेख मिलता है कि पार्श्वनाथ प्रभु की युगान्तगढ़ भूमि में पार्श्वनाथ के चार पट्टधर मोक्ष जावेंगे १ - गण - धर शुभदत्त २ - आचार्य हरिदत्त ३ - आचार्य समुद्रसूरि और ४ - केशी श्रमणचार्य । इस लेख से पार्श्वनाथ के चतुर्थ पट्टधर केशी श्रमणाचार्य गौतम के साथ चर्चा करने वाले केशीश्रमण से अलग थे और वे पार्श्वनाथ की परम्परा में मोक्ष गये हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि महावीर के निर्वाण समय भी पार्श्वनाथ के सन्तानिये पार्श्वनाथ के शासन की क्रिया समाचारी करने वाले विद्यमान थे । भगवान महावीर ने यह भी आर्डर नहीं निकाला था कि अब मेरा शासन प्रवृतमान हो गया है तो तुम पार्श्वनाथ के संतानिये कहला कर अलग क्यों रहते हो अर्थात तुम सब हमारे शासन में चले आओ इत्यादि और न पार्श्वनाथ संतानियों का भी श्राग्रह था कि हम पार्श्वनाथ के संतानिये अलग रह कर पार्श्वनाथ का शासन चलावेंगे। इन सब का मतलब यह है कि जहां जहां पार्श्वनाथ के संतानियों को भगवान महावीर की भेंट होती गई वहां वहां उन्होंने मगवान् महावीर के शासन को अर्थात चार महात्रत के पांच महाव्रत स्वीकार करते गये । शेष रहे हुए भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये क्रिया प्रवृति सब भगवान् महावीर शासन की ही किया करते थे, एवं आज भी करते हैं और वे पार्श्वनाथ की परम्परा में होने से महावीर संतानिये उनको पार्श्वनाथ संतानिये ही कहते थे । और भगवान् पार्श्वनाथ के संतानिये भी अपनी पट्ट परम्परा प्रभु पार्श्वनाथ से मिलाने की गरज से वे अपने को पार्श्वनाथ संतानिये कहलाते थे । दूसरे भगवान महावीर के पूर्व जैनधर्म के अस्तित्व का यह एक सबल प्रमाण भी है। तीसरे जहां आत्म-कल्याण है वहां परम्परा की खींचतान को थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता है । परम्परा केवल उपचरित नय से ही कही जाती है । वास्तव में जैनधर्म अनादिकाल से प्रचलित है । यही कारण है कि आज पर्यंत वीर शासन किसी आचार्य ने पार्श्वनाथ संतानियों के लिये एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया है कि भगवान् महावीर शासन में श्राप पार्श्वनाथ संतानिये क्यों कहलाते हो ? इतना ही क्यों बल्कि इनको श्रेष्ठ समझ कर बहुमानपूर्वक आदर सत्कार किया है। प्रसंगोपात् केशी श्रमणाचार्य के विषय के प्रश्नोत्तर लिखकर अब भगवान महावीर का विषय जो अपूर्ण रह गया था पूर्ण करते हैं । भगवान् महावीर के छदमस्थावस्था का विहार क्षेत्र १ अस्थिग्राम २ राजगृह ३ चम्पा ४ पृष्ट चम्प ५ भद्रिका ६ श्रभिया ७ राजगृह ८ भद्रिका ९ अनार्य भूमि १० सावस्थि ११ विशाला १२ चम्पानगरी एवं बारह चर्तुमास हुये और कैवल्यज्ञान होने के बाद वेसालिक और वानिया गाँव में १२ राजगृह में १२ मिथिला में ६ और अंतिम चर्तुमास पावानगरी में हुआ, इससे पाया जाता है कि भगवान् महावीर का विहार प्रायः अंग वंग मगध कलिंग और सिन्धु सोवीर वगैरह पूर्व में ही हुआ था तथा महाराष्ट्रीय प्रान्त में लोहि-त्याचा की संतान विहार कर धर्म प्रचार किया करती थी । ई० स० पूर्व ५२६ वर्षे भगवान महावीर का निर्वाण हुआ । और आपके पीछे गणधर सौधर्माचार्य * - पासस्सणं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहाअंतगढ़ भूमि हुत्था । तं जहा - जुगंतगढ़ भूमिय परिआयअंतगढ़ भूमिय, जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगढ़ भूमि - इत्यादि Jain Educa International For Private & Personal Use Only कल्पसूत्र www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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