SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना यह बात प्राकृतिक सत्य है कि सूर्य्य उदय होकर अपनी अवधि के पश्चात् अस्त भी हो जाता है, ठीक इसी प्रकार संसार चंद्र में भी कई जातियों, समाजों, एवं राष्ट्रों का उदय और अस्त ( उत्थान एवं पतन ) हुआ करता है। यह उत्थान और पतन की घटमाला ( क्रिया ) अनादि काल से चली आई है और भविष्य में भी चलती रहेगी। यही नियम जैन धर्म के प्रति भी समझना चाहिये । एक समय वह था कि जैन धर्म एवं जैन समाज उन्नति के उच्च शिखर पर विराज मान था, पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण तक जैन धर्म का झंडा फहरा रहा था। इतना ही नहीं, कई पाश्चात्य देशों में जैन धर्म का काफी प्रचार था, जिसको वहां कि भूमि खोद ( अम्वेषण विभाग ) के काम से उपलब्ध मन्दिर, मूर्तियों के खण्डहर पूर्णतः प्रमाणित कर रहे हैंः इत्यादि । किन्तु उपरोक्त कोल चक्र ( परिवर्तन-चक्र ) के नियमानुसार जैन धर्म की वह स्थिति न रह सकी और वह उन्नति के उच्च शिखर से शनैः २ अवनत दशा को प्राप्त करता गया । वर्तमान जैन समाज की पतन अवस्था को देख कर किस समझदार व्यक्ति के हृदय में गहरा दुःख म होगा । इस पतनावस्था का भी कोई न कोई कारण तो अवश्य ही ( होगा ) होना चाहिये ! यों तो पतन के अनेक कारण हो सकते हैं किन्तु यदि हम दीर्घ-दृष्टि से अन्वेषण करें तो यही मालूम होगा कि मुख्य कारण, जैन समाज का अपने पूर्वजों के गौरवमय इतिहास को भूल जाना है। यही कारण है कि जैन समाज की नसों में अपने पूर्वजों के गौरवशाली रक्त के प्रवाह की शिथिलता, ओज की होनता और इतिहास की अनभिज्ञता व्यापक है । इन्हीं कारण से आज वह मुर्दा-समाज की उपाधि धारण कर अपना नाम उसीपंक्ति में लिखाने को तत्पर हो गया है। जिस प्रकार मृतक को हेमगर्व व कस्तूरी अथवा चन्द्रो एवं तत्समान ही अमूल्य औषधियों देने पर भी उसमें चैतन्यता नहीं आती, ठीक इसी प्रकार आज जैन समाज का हाक हो रहा है। 1 जैन समाज में अभी ऐसे मनुष्यों का भी अभाव नहीं है कि जो इस जाग्रति के युग अर्थात् वीसवी सदीं में जन्म लेकर भी यह नहीं जानते कि इतिहास किस चिड़िया का नाम है ? अगर उनको समझाया भी जाय की अपने पूर्वओं के भूतकालीन सद्- चरित्र, उनकी वीरता- गम्भीरता, धैर्य्यता एवं उदारता, देश-समाज धर्म एवं राष्ट्र सेवा तथा उस समय की सामाजिक-धार्मिक एवं राजनीतिक परिस्थिति क्या थी ? उस को जानना, उनके समय का हुनर, उद्योग, शिल्प कला एवं रीति-रिवाज क्या क्या था ? इन सब बातों अन्दर से उपादेय कारणों को स्वी कार करना इत्यादि । इन सब का ही नाम इतिहास है। इस पर हमारे वे भोले भाई चट से बोल उठते हैं कि-'वाह ! जी वाह !! आपने ठीक इतिहास बतलाया। ऐसी व्यर्थ की गई गुजरी बातों के लिये घर का काम छोड़ कर रात-दिन सिरपची (मगज़ खोरी ) करना तथा बड़े कंष्ठ एवं परिश्रम से कमाया हुआ द्रव्य पानी की तरह बहा देना कौन सी समझदारी है और क्या फायदा है ? हमारे तो पूर्वज सदा से कहते आये हैं और वही हम भी हमारे बाल बच्चों को कहते हैं कि "गई तिथि तो ब्राह्मण भी नहीं बांचे हैं। हमारे पूर्वज धनवान थे अथवा वीर थे तो क्या उनके इतिहास पढ़ने से हम धनबाम थोड़े ही मन जांयेंगे ? मेरा तो खयाल है कि ऐसी बेहूदा ( मूर्खता पूर्ण ) बातें कहने वाले बेकार पागल ( मूर्ख) ही होते हैं कि जो समय, शक्ति और द्रव्य का बलिदान दे रहे हैं किन्तु हम ऐसे पागल नहीं हैं। यदि घर-दुकान का काम दो पैसे पैदा करेंगे तो भविष्य में उससे बाल बच्चे सखी होंगे और पास में पैसे होंगे तो हर व्यक्ति भाकर हमारी ही याद करेगा आदि २ ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy