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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
शिलालेख महावीर मंदिर का नहीं अपितु जिनदेव नामक श्रावक द्वारा किसी मंदिर के टूटे हुये रंगमंडप के जीर्णोद्धार से सम्बन्ध रखता है । अतएव इस शिलालेख के द्वारा ओसवाल वंशोत्पत्ति के समय का अनुमान करना केवल कल्पना मात्र ही है।
शंका नं०४-कल्पसूत्र में भगवान महावीर से १००० वर्ष तक के प्राचार्यों की नामावली मिलती है; इस नामावली में न तो रत्नप्रभसूरि का नाम है और न ओसवाल बनाने का उल्लेख है । इससे अनुमान होता है कि इस समय के बाद किसी समय में ओसवालों की उत्पत्ति हुई होगी।
समाधान-श्रीकल्पसूत्र भद्रबाहुकृत है और इसकी स्थविरावली देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय की है; जिनका कि समय ५ वीं शताब्दी का है। श्रीमान देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमण ने महावीर से १००० वर्षों का सबका सब इतिहास नहीं लिखा, परन्तु उन्होंने केवल अपनी गुरूप्रावली लिखी है। भगवान महावीर के समय में दो परम्परायें थीं १-पार्श्वनाथ परम्परा २- महावीर परम्परा । देवऋद्धि क्षमाश्रमण महावीर की परम्परा में थे । आचार्य वज्रसैनसूरि के ४ शिष्यों से चार शाखायें उत्पन्न हुई। उनमें से एक शाखा में क्षमाश्रमणजी थे अतः आपने केवल एक अपनी शाखा की गुरुपावली का उल्लेख कल्पसूत्र में किया है । जब कि श्री क्षमाश्रमणजी कृत कल्पस्थविरावली में महावीर परम्परा और चन्द्रकुलादि समयोचित विषयों का ही इतिहास नहीं मिलता है तो पार्श्वनाथ परम्परा एवं उपकेशगन्छ के लिये तो कल्पसूत्र में स्थान कहाँ से मिले ? इससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि जिस घटना का उल्लेख कल्पसूत्र की स्थविरावली में न हो वह ऐतिहासिक घटना ही नहीं। भला सम्राट सम्प्रति एवं खारवेल वगैरह का महत्वपूर्ण इतिहास है
और कल्प स्थविरावली में उनकी गन्ध तक भी नहीं है इसको हम मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो फिर केवल श्रोसवंश और रत्नप्रभसूरि के लिये ही विरोध क्यों ? खैर । यह शंका तो ओसवाल बनाने की है; परन्तु कल्प स्थविरावली में तो पार्श्वनाथ परम्परा का नाम भी नहीं है, तथापि यह निर्विवाद सिद्ध है कि महावीर के समय के पहिले से ही पार्श्वनाथ की परम्परा विद्यमान थी। अतएव यह शंका निर्मूल है । इससे ओसवालोत्पत्ति की प्राचीनता में श्राक्षेप नहीं किया जा सकता है।
शंका नं० ५- श्रोसवालों में प्रथम अठारह गोत्रों का निर्माण हुआ बताया जाता है एवं वे अठारह जाति के राजपूतों से बने हैं । इन अठारह जाति के राजपूतों के सम्बन्ध में एक कवित्त भी कहा जाताहै किः"प्रथम साथ पंवार १ शेष शिशोदा २ शृंगाला,
रणथंभा राठौर ३ वसंच ४ बालचचाला ५ दइया ६ भाटी ७ सोनीगरा ८ कच्छावा ९ धनगौड़ १० कहीजे,
जादव ११ जाला १२ जिंद १३ लाज मरजाद लहीजे ॥ खरदरा पाट ओपे खरा लेणा पाटज लाखरा,
एक दिन ऐते महाजन भये, शूराबड़ी बड़ी साखरा ।। इस कवित्त में कई जातियों के नाम रह भी गये हैं, फिर भी ये जातियां उतनी प्राचीन नहीं हैं जितना कि पट्टावलियों में ओसवालोत्पत्ति का समय मिलता है। अतः इस कवित्त के आधार पर हम ओसवाल जाति की उत्पत्ति दशवी ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास की समझते हैं।
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