________________
वि० पू० १८२ वर्षे ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
मगध सम्राट् को परास्त कर राजा खारवेल भारतवर्ष में एक मात्र चक्रवर्ती राजा हुए । इसलिये फिर वे देश विजय करने के लिये बाहर नहीं निकले । इसी वर्ष दक्षणीय पांड्य देशीय राजा के बहुत से हाथी व जहाजों पर उत्कलीय लोगों ने अधिकार किया था चक्रवर्ती राजा खारवेल ने इसी वर्ष पांड्य राजा से बहुत से मूल्य. वान् रत्न, अश्व, हाथी और मनुष्य उपहार में लिये थे। इस तरह से उत्तर और दक्षिण के समस्त राजा लोग राजा खारवेल को अपना चक्रवर्ती राज मानने लगे।
दान-धर्म और देशहित कार्य:-चक्रवर्ति महाराज खारवेल केवल युद्ध लिप्सु और प्रशंसाभिलाषी राजा न थे । किन्तु नानाप्रकार के देश हितकारक सुंदर कार्य और प्राणियों की रक्षा एवं दानधर्म करने में भी वे सदैव तत्पर रहते थे। जिससे उनका गौरव मय जीवन और भी आदरणीय हुआ था । यद्यपि वे स्वयं जैन धर्मावलंबी थे तथापि वैदिक धर्म के अनुसार उनके युवराज्याभिषेक के कार्य हुए थे। इससे यह परिचय मिलता है कि वे समस्त धर्म मतों को समान दृष्टि से देखते थे । इतना ही नहीं पर यह भी प्रमाणित होता है कि वे अपने शासन काल में अपना स्वाधीन मत प्रतिष्ठित न कर प्रजा संघ के हेतु शास्त्रीय नियमों के अनुसार राज्य कार्य चलाते थे और अन्य धर्मियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने से उनका जीवन और भी अधिक गौरव मय बनगया था। तथा उनके राजोचित गुण सर्वथा प्रशंसनीय थे । राजा खारवेल ने अपने राजस्व के प्रथम वर्ष में अपनी पुरानी राजधानी की मरम्मत कराई थी। कृषि तथा जलपान की सुविधा के लिये बहुत से तालाब खुदवाये थे तथा जगह २ मनोरंजन करने के लिये प्रमोद उद्यान बनवाये थे। मूषिक राज्य को जीतकर स्वदेश में वापिस आने पर उनने अपने देश में विजय उत्सव किया था। वे स्वयं गांधर्व विद्या के धुरन्धर ज्ञाता थे । उनके विनिर्मित प्रमोद उद्यानों में वे नित्य नाटक अभिनय, संगीत तथा प्रीति भोज्य की व्यवस्था रख कर प्रजागणों के साथ निरंतर प्रफुल्लचित से रहते थे। उसने अपने राजस्व के चतुर्थ वर्ष में राष्ट्रक राज्य विजय करने से पूर्व विद्याधरदास नामक कितने ही धर्म मंदिर और मठनिर्माण कराये थे। ३०० वर्ष पूर्व नंद राजाओं ने राजधानी के समीप 'सनसुलिया' नामक स्थान तक जो अधूरी नहर खुदवाई थी महाराजा खारवेल ने उसे आगे खुदवा कर अपनी राजधानी तक लाने का प्रयत्न किया और इसमें सफल मनोरथ भी हुए । इस नहर के खुद जाने के कारण वाणिज्य और कृषि में विशेष सुविधा हुई । राजत्व के छठे वर्ष में वे शहर और मुफस्सिलवासी व्यापार और शिल्प व्यवसायियों के लिये वाणिज्य सुविधा के उचित प्रबंध कर धन्यवाद के पात्र हुए थे । राजत्व के सप्तम वर्ष में इनका विवाह हुआ था किन्तु नीलकंठदासजी नवम वर्ष में यानी २४ वर्ष की अवस्था में विवाह होना अपने धूसी चरित्र द्योतक काव्य में लिखते हैं) नवम वर्ष में विपुल धन ब्राह्मणों को दान दिया था। उसी वर्ष सोने का एक शाखा पत्र संयुक्त कल्प वृक्ष सय्यार करवा कर हाथी घोड़ा रथ वगैरह और सारथि सहित ब्राह्मणों को दान में अर्पण किया और उन्हें भोजन भी करवाया था। जिन ब्राह्मणों ने दान ग्रहण किया उन्हें घर जमीन, सम्पत्ति इत्यादिक देकर अपने राज्य में रक्खा। ये सब उत्सव और दान राजगृह विजय के उपलक्ष में किये गये थे। इसी विजय के स्मारक स्वरूप 'महा विजय प्रासाद' नामक एक राजभवन प्राचीन नदी के किनारे ३८००००० मुद्रा व्यय कर बनवाया था । दसवें वर्ष में भारतवर्ष विजय कर वापिस आने पर कलिंग के प्रथम राजवंशीय राजा केतुभद्र की उपासना करने के लिए एक विग्रह संस्थापन किया तथा उस विग्रह की पूजा उपलक्ष्य में एक यात्रा का आरम्भ किया था । केतुभद्र की मूर्ति की पूजा कलिंग के प्राचीन राजा लोग करते आये थे इसी
Jain Educa
g
national
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org