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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
और कैसे हुई ? अनेक प्रमाणों के आधार से यही स्पष्ट होता है कि श्रोसवाल शब्द की उत्पत्ति श्रोसियां नगरी से ही हुई । ओसियाँ उपकेशपुर का अपभ्रंश शब्द है और इस शब्द की उत्पत्ति का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास का है। इसके पूर्व इस नगर का नाम उपकेशपुर और जाति का नाम उएस-उकेश और उपकेश था । जैसे --
क-"उएस" यह मूल शब्द है और उसवाली भूमि का द्योतक है, अर्थात् जिस भूमि पर ऊस (ओस का पानी) पड़ता हो उसे ओस अर्थात् उएस कहते हैं । इस भूमि पर जो शहर आबाद हुआ वह उसपुरओसपुर उएसपुर कहलाया ।
ख--प्राकृत भाषा के लेखकों ने "उएस" शब्द को प्रन्थबद्ध करने में "उकेसपुर" प्रयुक्त किया है।
ग-संस्कृत के रचयिताओं ने अपनी सुविधा के लिये "उकेसपुर" को "उपकेशपुर" शब्द के रूप में परिवर्तित कर दिया। प्राचीन ग्रन्थों में इसका नाम उएश, उकेश और उपकेशपुर ही मिलता है । यथाः-- "समेत मेतत प्रथितं पृथिव्यामुकेश नामास्ति पुरं" ॥ श्रोसिया मदिर का शिलालेख वि० सं० १०५३ का "कदाचिदुपकेशपुरेसूरयःसमवासरन्, वा यादृग तन्नगरंयेन, स्थापितं श्रयतां तथा" उपकेशगच्छ चरित्र "अस्तिअस्तिचव्वक्रद् भूमेमरुदेशस्यभूषणम् । निसर्गसर्गसुभगमुकेशपुरं वरम्" ना० जि० श्लोक १८ "अस्ति उपकेशपुरनगरं, तत्रोत्पलदेवनरेशोराज्यंकरोति ।
उपकेशगच्छ पट्टावली पूर्वोक्त प्राचीन शिलालेखों व ग्रन्थों में सर्वत्र उएस उकेश या उपकेशपुरके नाम का ही उल्लेख मिलता है; परन्तु किसी भी स्थान पर ओसियां शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे यह निश्चय होता है कि जिसको आज हम श्रोसियां कहते हैं; उसका मूल नाम उकेस या उपकेशपुर ही था और इसी उपकेशपुर के नामानुकूल यहां के निवासियों का नाम उपकेशवंश हुआ है । यद्यपि कालांतर में तत्कालीन कारणों से गोत्र एवं जातियों के पृथक् पृथक् नाम पड़ गये; किन्तु अद्यावधि इन जातियों के प्रारम्भ में वही मूल नाम उएस ऊकेस, अथवा उपकेशवंश लिखने की पद्धति विद्यमान है। प्रमाणस्वरूप अनेकों शिलालेख इस समय भी विद्यमान हैं । देखिये इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ पर।
जब उपकेशपुर का अपभ्रंश "ओशियां' हुआ, तब से कहीं २ श्रोसवंश ( ओसवाल ) शब्द का भी उल्लेख हुआ है पर वह बहुत थोड़े प्रमाण में और वह भी वि० १३ वीं शताब्दी के समीपवर्ती समय में दृष्टिगत होता है जैसे
'सं० १२१२ ज्येष्ठ वदि ८ भौमे श्रीकोरंटगच्छे श्रीनन्नाचार्य संताने श्री ओसवंशे मंत्रि धाधकेन श्रीविमलमंत्री हस्तीशालायाँ श्रीआदिनाथ समवसरणं कारयाँ चक्रे श्रीनन्नमरिपट्टे श्रीकक्कसूरिभिः प्रतिष्ठितं वेलापहनी वास्तव्येन । "स० जिनविजयजी सं० शि० दू० लेखांक २४८
इससे पूर्व भोसवाल शब्द का प्रयोग कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से यही प्रमाणित होता है कि ओसवाल शब्द मूल शब्द नहीं है; अपितु
ॐ इस स्थान पर हमने समय का निर्णय न करके केवल प्राचीनकाल से व्यवहार में आते हुये "उएस" या उपकेश शब्द की व्यवहारिकता को ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है !
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