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आचार्य कक्कमूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
आसन को कब्जे करता जाता है। ऐसे ब्राह्मण का यहाँ क्या काम है ? ऐसा कह कर दासी ने एक लात मार कर उठाने लगी। इस पर चाणक्य कुपित होकर सभा के समक्ष ऐसी प्रतिज्ञा की कि मैं इस नन्द राजा को सकुटम्ब नाश कर डालूगा। ऐसा कह कर चाणक्य वहाँ से रफूचक्कर हो गया और विचारने लगा कि मेरे जन्म समय ज्ञानवान मुनि ने जो भविष्य कहा था मुझे उसके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये; बस ।
"अब चाणक्य राजगद्दी के योग्य मनुष्य की खोज में फिरने लगा । जिस गाँव में क्षत्रिय जाति के मयूर-पोषक लोग रहते थे, एक दिन चाणक्य परिव्राजक-वेश धारण करके भिक्षा के लिये उसी गाँव में चला गया । मयूर-पोशकों का जो सरदार था उसकी एक लड़की गर्भवती थी अतएव उसे यह दोहदा ( दोहला) उत्पन्न हुआ कि मैं चन्द्रमा को पी जाऊँ, परन्तु इस दोहले को पूर्ण करने के लिये कोई समर्थ न हुआ । उसी समय परिव्राजक-वेश में यहां पर चाणक्य आ पहुँचा । मयूर-पोशकों ने यानि उस गर्भवती कन्या के कुटुम्बियों ने चाणक्य से यह सब हाल कह सुनाया। चाणक्य बोला-"भाई यह दोहला तो पूर्ण करना बड़ा दुष्कर है तथापि तुम लोग मेरा कहना स्वीकार करो तो मैं इस दुष्कर दोहले को पूर्ण कर सकता हूँ।" पयूर-पोषकों ने कहा-'महाराज ! हमें आपकी आज्ञा स्वीकार है अब आप इस कन्या के प्राण बचावें' चाणक्य बोला-इस देवी के जो गर्भ है उसे उत्पन्न होते ही तुम मुझे दे दो तो मैं इसकी इच्छा अभी पूर्ण करदूं, अन्यथा दोहला पूर्ण न होने से इसके गर्भ का भी विनाश होगा और इस देवी की भी स्त्रैर खूबी नहीं है । मयूर-पोशकों ने चाणक्य की बात स्वीकार करली । तब चाणक्य ने वहां पर सूखे हुये घास का एक
इतश्च गोल्ल विषये ग्रामे चणकनामनि, ब्राह्मणोऽभूच्चणी नामतद् भार्या च चाणेश्वरी ॥ बभूव जन्म प्रभृति श्रावकत्व चणचणी, ज्ञानिनो जैनमुनयः पर्यवात्सुश्चतद्गृहे ॥ अन्यदातुद्गतैर्दन्तैश्चणेश्वर्या सुतोऽजनि, जातं च तेभ्यः साधुभ्यस्तं नमोऽकारयच्चणी ॥ तंजातदन्तं जातं च मुनिभ्योऽकथयच्चणी ज्ञानिनो मुनयोऽप्पख्यन् भावी राजैष बालकः ॥
परिशिष्ठ पर्व स्वर्ग ८ श्लोक १९४ स ११७ मयूर-पोषक ग्रामेतस्मिंश्च चणिनन्दनः प्राविशत्कणभिक्षार्थ परिव्राजक वेषभूत् । मयूर-पोषक महत्तरस्य दुहितुस्तदा, अभूदापन्न सत्वायाश्चन्द्र पानाय दोहदः ॥ तत्त्कुटम्वेन कथितश्चाणक्यय स दोहदः पूरणीयः कथम सावितिपृष्टोऽवदच्चसः । यद्येतस्य जात मानं दारकं मम दत्थ भोः तदाहं पूराम्येव शशभृत्पान दोहदम् ।। अपूर्ण दोहदे गर्भनाशोऽस्यमाभवत्विति, तन्मतापितरौ तस्याम सातां वचनंहितत् । चाणक्योऽकारयच्चाथ सच्छिद्रं तृणमण्डपम् , पिधान धारिणं गुप्तं तदूर्चेचामुचन्नरम् ॥ तस्याधोऽकारयामास स्थालं च पयोसाभृतम् , ऊजेराकांनिशीथे च तन्दुः प्रत्यबिम्ब्यत् । गुर्विण्यास्तत्र सङ्कान्तं पूर्णेन्दं तम दर्शयत् , पिबेत्युक्ता च सा पातुमारभे विकसन्मुखी ॥ सापाद्यथ यथा गुप्तयुरुषेण तथा तथा, न्यधीयत पिधानेन तच्छिद्रं ताणमण्डपम् । पूरिते दोहदे चैवं समयेऽसूत सा सुतम् चन्द्रगुप्ताभिधानेन पितृभ्योसोऽभ्यधीयत ॥
परिशिष्ट पर्व स्वर्ग ८ श्लोक २३०-२३६
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