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________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास मार्यवंशीराजा और मंत्री काणक्य मौर्यवंशी राजाओं के पूर्व थोड़ा सा हाल महावुद्धिशाली मंत्री चाणक्य का लिख दिया जाता है। -- लदेश के अन्तर्गत चाणक नामक गाँव में चणी नाम का एक ब्राह्मण रहता था, ___ जिसके चणेश्वरी नामक भार्या थी । वह दोनों परम्परा से ही जैन धर्म पालते थे। චිත්‍ර බහුම एक समय कई जैन मुनि उस ब्राह्मण भक्त के घर आ निकले जो कि बड़े ही भविष्य वेत्ता थे। उसी समय चाणेश्वरी की कुक्ष रत्न से एक पुत्र पैदा हुआ था जिसकी तो बड़ी खुशी थी, परन्तु साथ में उस नवजातपुत्र के जन्म से ही मुँह में दांत-श्रेणी देख माता को आश्वार्य हुआ। उसने आये हुये मुनि से निर्णय के लिये प्रश्न किया। मुनि ने कहा, यह तुम्हारा पुत्र इस शुभ लक्षण से एक बड़ा राजेश्वरी होगा । इस पर ब्राह्मण दम्पत्ति को खुशी हुई, परन्तु साथ में धार्मिक दृष्टि से विचार किया कि राजेश्वरी प्रायः नरकेश्वरी होता है, अतः उन्होंने नवजात पुत्र के दाँत घिस डाले और यह बात मुनिजी को भी सुना दी । मुनि ने कहा भवितव्यता बलवान होती है । दाँत घिसने से अब तुम्हारा पुत्र किसी बड़े राजा का मंत्री होगा, बस ब्राह्मणनेयथा-समय महोत्सव के साथ पुत्र का नाम चाणक्य दिया। ____ क्रमशः चाणक्य बड़ा हुआ । विद्याध्ययन भी खूब किया। जैन धर्म पर इसकी अटल श्रद्वा थी। जब युवक व्यय में पदार्पण किया तो एक कुलीन ब्राह्मण कन्या के साथ उस लग्न कर दिया । एक समय चाणक्य की स्त्री के भाई का लग्न था, अतः वह अपने पीहर गई । वहाँ दूसरी भी इनकी बहिनें अपनी अपनी ससुराल से आई हुई थीं जिनके शरीर पर बढ़िया बढ़ि। वस्त्राभूषण पहिनने को थे, जिसको चाणका की स्त्री ने देख कर विचार करने लगी कि मैं हतभाग्य हूँ पुन्य हीन हूँ पूर्व जन्म में सुकृत नहीं किया कि इस भव में मैं द्रव्यहीन दारिद्रणी हूँ। उधर लोग भी उस निर्धन ब्राह्मणी की हँसी करने लगे, अतः वह लज्जा के मारी कहीं भी जा नहीं सकी । जब लग्न कार्य समाप्त हुआ तो वह लौट कर अपने ससुराल आई ओर सदैव उदास रहने लगी । इस पर चाणक्य ने अपनी प्यारी पत्नी से पूछा और उसने सब वृत्तान्त निवेदन किया, जिसको सुन कर चाणक्य के दिल में अर्थोपार्जन करने की लिप्ता पैदा हुई । जिसके उपाय सोचने पर उसको यह मालूम हुआ कि पाटलीपुत्र नगर का राजा नन्द ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा देता है, अतः मुझे पाटलीपुत्र जाना चाहिये । बस उसने ऐसा ही किया पाटलीपुत्र जाकर राजसभा में राजासन छोड़ कर दूसरे आसन पर बैठ गया । इतने में गजा नन्द अपने पुत्र के साथ राजसभा में आये राजकुँवर ने अपने आसन पर एक ब्राह्मण को बैठा हुआ देख के राजा से कहा कि यह ब्राह्मण कौन है कि मेरे आसन पर बैठ गया है ? फिर भी चाणक्य तो बैठा ही रहा । इतने में एक दासी आई और उसने कहा ब्राह्मण देव पास में रहे हुये दूसरे आसन पर बैठ जाइये । इस पर चाणक्य ने दूसरे आसन पर अपना कमंडल रख दिया एवं फिर कहने पर तीसरे आसन पर दंड रख दिया चोथे पर जपमाला रख दी पांचवें पर जनेऊ रख दी, इस पर दासी ने कहा, अरे यह ब्राह्मण कैसा मूर्ख है कि कहने पर श्रासन नहीं छोड़ता है, परन्तु ज्यों ज्यों कहा जाता है त्यों त्यों उल्टा २५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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