________________
ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पृ० ४०० वर्षे
MAN
महाजनसंघ उपकेशवंश और प्रोसवाल जाति की उत्पत्ती विषय
विद्वानों की सम्मतियें
१-श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर ने स्वसम्पादित प्राचीन लेख संग्रह खण्ड तीसरे के पृष्ठ २५ पर लिखा है कि ओसवालों की उत्पत्ति विक्रम सं० ५०० से १००० वर्ष में हुई होगी जैसे कि आप लिखते हैं
"इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि 'ओसवाल' में 'श्रोस' शब्द ही प्रधान है । ओस' शब्द भी 'उएस' शब्द का रूपान्तर है और 'उएस' 'उपकेश' का प्राकृत है। इसी प्रकार मारवाड़ के अन्तर्गत 'श्रोसिया' नामक स्थान भी 'उपकेशनगर' का रूपान्तर है । जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी वहां के राजपूतों की जीवहिंसा छुड़ा कर उन लोगों को दीक्षित करने के पश्चात वे राजपूत लोग उपकेश अर्थात् ओसवाल नाम से प्रसिद्ध हुये। xx x
जहाँ तक मैं समझता हूँ ( मेरा विचार भ्रमपूर्ण होना भी असम्भव नहीं ) प्रथम राजपूतों से जैनी बनाने वाले पार्श्वनाथ सन्तानिया श्रीरत्नप्रभसूरि नाम के आचार्य थे। उपरोक्त घटना के प्रथम श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के पट्ट परम्परा का नाम उपके शगच्छ भी नहीं था इत्यादि जैन लेख संग्रह खण्ड तीसरा पृष्ठ २५
नोट-ओसवालों का उत्पत्ति स्थान ओसियों और प्रतिबोधक आचार्यरत्नप्रभसूरि थे इस विषय में श्रीमान नाहरजी हमारे सम्मत हैं तथा आपका यह कहना भी ठीक है कि ओसवाल बनने की घटना के पूर्व पार्श्वनाथ की पट्ट-परम्परा का नाम उपकेशगच्छ मी नहीं था ? क्योंकि पार्श्वनाथ की परम्परा का उपकेशगच्छ नाम उपकेशपुर में महाजनसंघ बनाने के बाद में ही हुआ है। शेष शंकाओ के लिये देखो 'शंकाओं का समाधान' नामक लेख जो इसी प्रन्थ में प्रकाशित है।
२-इसी प्रकार 'ओसवाल जाति का इतिहास' के लेखक श्रीमानभंडारीजी ने भी नाहरजी का ही अनुकरण करते हुए कहा है कि ओसवालों की उत्पत्ति वि० सं०५०० से ९०० के बीच में हुई होगी।
___३-श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेरवालों ने पल्लीवाल पट्टावली नामक एक लेख आत्मानन्द शताब्दी अंक के पृष्ठ १८७ पर मुद्रित करवाया है जिसमें आप लिखते हैं कि:
"श्वेताम्बर समाज में दो तीर्थकरों की परम्परा अद्यावधि चली आती है । १-पार्श्वनाथ २-महावीर । भगवान महावीरदेव की विद्यमानता में प्रभु पार्श्वनाथजी के सन्तानिये केशीगणधर की विद्यमानता के प्रमाण श्वे० मूल अागमों में पाये जाते हैं यद्यपि केशी के अतिरिक्त और भी कई मुनिराज पार्श्वनाथ सन्तानिये उस समय विद्यमान थे और उसका उल्लेख अंगसूत्रों में कई जगह प्राप्त है तथापि केशी मुख्य और प्रभाविक थे उनकी परम्परा आज तक भी चली आ रही है इसलिये वे यहाँ उल्लेखनीय हैं।
इस परम्परा के छठे पटधर रत्नप्रभसूरिजी नामक प्राचार्य बहुत प्रभाविक हो गये हैं कहा जाता है कि श्रोसियां ( उपकेश ) नगरी में वीर निर्वाण सम्वत् ७० के बाद १८०००० क्षत्रियपुत्रों को उपदेश देकर जैनधर्मी आपने ही बनाये और वहाँ से उपकेशनामावंश चला जो आज भी श्रोसवाल के नाम से सर्वत्र सुप्रसिद्ध है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये उनका नाम सदा चिरस्मरणीय रहेगा।"
४-जैनन्योति नामक साप्ताहिक अखबार जो अहमदाबाद से प्रकाशित होता है जिसके ता०५-६-३७ के अंक में एक पुस्तक की समालोचना करते हुए लिखते है:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www१६७ary.org