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आचार्य ककसूर का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
पूर्वोक्त बौद्ध प्रन्थ से यह स्पष्ट सिद्ध है कि अशोक के मृत्यु समय सम्प्रति पाटलीपुत्र एवं अशोक की सेवा में हाजिर था तथा अशोक की मृत्यु के समय पाटलीपुत्र में ही सम्प्रति का राज्याभिषेक हो गया इतना ही क्यों पर अशोक की मौजूदगी में ही सम्प्रति ने राजसत्ता अपने हस्तगत करली थी जब ही तो उनके मना करने से राज खचावी दान के निमित्त द्रव्य देने से रुक गये थे अतः इससे अधिक सम्प्रति का मगध के राज सिंहासन पर अभिषिक होने में और क्या प्रमाण हो सकता है ?
कई लोग अशोक के बाद मगध की राजगद्दी पर दशरथ का राज होना कहते हैं तथा दशरथ के राज समर्थन के विषय में कई शिलालेख भी मिलते हैं। शायद मगध के प्रदेश में कुछ समय के लिये दशरथ का राज रहा भी हो। पर बौद्धों के उपरोक्त अवदान के प्रमाण से अशोक की मृत्यु के समय ही सम्प्रति का मगध के सिंहासन पर राज्याभिषेक होना पाया जाता है। इतना ही क्यों पर जब सम्प्रति केवल दस मास का बालक था तभी अशोक ने उसको युवराज पद से भूषित कर उसके पिता कुनाल के साथ उज्जैन भेज दिया था और उज्जैन का राजतंत्र कुनाल ने अपने अधिकार में कर दिया था। सम्प्रति बड़ा होकर राजतंत्र को अपने हाथ में लिया और उसको बड़ी वीरता से चलाया । जैन ग्रंथों में यह भी उल्लेख मिलता है कि सम्प्रति ने सौराष्ट्र + ( काठियावाड़ ) और दक्षिण भारत के को तो युवराज अवस्था में ही विजय कर लिया था। इस हालत में मद्वचनाच संघस्य पादाभिवन्दनं कृत्वा वक्तव्यं जम्बूद्वीपेश्वमस्य राज्ञ एव सांपतं विभव इति । इदं तावद् अपश्रियं दानं तथा प्रति भोक्तवं यथा मे संघगता दक्षिणा विस्तीर्णा स्यादिति ।
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यावत्तदर्धामलकं चूर्णयित्वा यूषे प्रक्षिप्य संघे चरितम् । ततो राजाऽशोको राधगुप्तमुवाच -- कथय राधगुप्त ! कः साम्प्रतं पृथिव्यामीश्वरः अथ राधगुप्तोऽशोकस्य पादयोनिर्पत्य कृतांजलिरुवाच देवः पृथिव्यमीश्वरः ! अथ राजाऽशोकः कथंचिदुत्थाय चतुर्दिशमवलोक्य संघायांजलिंकृत्या 'एप इदानीं महत्कोशंस्थापयित्वा इमां समुद्रपर्यन्तां महापृथिवीं भगवच्छ्रावकसंघे निर्यातयामि' ।
यावत्पत्राभिलिखित कृत्वा दत्तं मद्रया मुद्रितम् । ततो राजामहापृथिवीं संघे दत्वा कालगतः यावदमात्यैर्नीलपीतामिः शिविकाभिर्तिर्हरित्वा शरीर पूजां कृत्वा राजानं प्रतिष्ठा - पयिष्याम इति यावद राधगुप्तेनाभिहितं राज्ञाऽशोकेन महापृथिवी संधे निर्यातिता इति । तेपामा - त्यैरीभहितं किमर्थमिति राधगुप्त उवाचएप राज्ञोऽशोकस्य मनोरथो बभूव कोटिशतं भगवच्छासने दानं दास्यामीति तेन षण्णवतिकोट्योदत्तायावद्राज्ञाप्रतिषिद्धाः तदभिप्रायेणराज्ञा पृथिवी संघेदत्ता यावदमात्यैश्चतस्रःकोट्यो भगवच्छासनेदत्वा पृथिवीं निष्कीय संपदी राज्ये प्रतिष्ठापित ।"
"दिव्यावदान श्र० २६"
+- "ते सुरट्ठविसयो अन्धा दमिला य ओयविया"
इसी विषय में रूप चूर्णिका का मत इस प्रकार का हैः
+- "ताहे तेण संपइणा उज्जेणीआई काउ' दक्खिणावहो सव्वो तत्थ ठिण्ण वि अज्जावितो" । कठियावाड़ और दक्षिणा प्रान्त को जीतने से सम्मति के सम्बन्ध में यह अनुमान हो सकता है कि सौराष्ट्र और दक्षिण हिन्दुस्तान में उसने युवराज अवस्था में ही अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापन कर दी होगी ।
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निशीथ चूर्ण
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