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वि० पू० २८८ वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
राजाने अमात्य राधगुप्र को बुलाकर कहा--"शेल राधगुप्त ! इस समय पृथ्वी में ईश्वर कौन है ?" विनय के साथ उत्तर देते हुए राधगुप्त ने कहा-'आप ही तो पृथिवी में ईश्वर हैं' यह सुनकर अशोक किसी तरह उठा और चारों ओर नजर दौरा कर आया हुआ भिक्षु संघ को नमस्कार कर बोला-'महकोश को छोड़ कर इस समुद्रपर्यंत महापृथिवी को संघ के लिए अर्पण करता हूँ' इस प्रकार पृथिवी का दान करके राजा काल शरण हो गया बाद अमात्यों आदि ने जलसे के साथ अशोक के शरीर का अग्निसंस्कार किया और वे मगध के सिंहासन पर संपदी को बिठाने की तैयारी करने लगे, तब राधगुप्त ने कहाचार करोड़ स्वर्ण के बदले यह पृथिवी अशोक ने संघ को दान करदी है, इस वास्ते जब तक संघ से यह पृथिवी छोड़ाई नहीं जाय, तब तक इस पर दूसरा राजा नहीं हो सकता । अमात्यों ने पूछा कि क्या अशोक ने संघ को पृथिवी दान में दी ? उन्होंने कहा हाँ तब अमात्यों ने राज खजाना से ४ करोड़ सुवर्ण बोधसंघ को दे कर पृथिवी को छुड़ाया और बाद में संपदी का राज्याभिषेक किया।
"अपिच राधगुप्त,अयंमेमनोरथोवभूवकोटीशतंभगवच्छासनेदानंदास्यामीति, स च मेऽभिप्रावो न परिपूर्णः ततोराज्ञाऽशोकेनचत्वारःकोटयःपरिपूरयिष्यामीतिहिरण्यसुवर्ण कुर्कुटारामं प्रेषयितु मारब्धः
तस्मिंश्चसमयेकुनालस्यसंपदीनामपुत्रोयुवराज्येप्रवर्तते । तस्यामात्यैरभिहितं- कुमारअशोककोराजास्वल्पकालावस्थायीइद्रं चद्रव्वंकुक्कुटारामंप्रेषयतेकोशबलिनश्च राजानो निवारयितव्यः । यावत्कुमारेणभांडागारिकः प्रतिषिद्धाः तस्यसुवर्णभाजने आहार। मुपनाम्यते, भुक्त्वातानिसुवर्णभाजननानिकुक्कुटारामंप्रेषयतितस्यसुवर्णभाजनप्रतिषिद्धं रूप्यभाजनेआहारमुपनाम्यते, तान्यपिकुक्कु टारामंप्रेषयति । ततोरुप्यभाजनमपिप्रतिषद्भ या वल्लीहभाजनआहारमुपनाप्यते । तान्यपिराजाअशोकःकुक्कुटारामंप्रेषयति । तस्ययावन्मृद् भाजनआहारमुपनाम्यते । तस्मिश्चसमयेराज्ञोऽशोकस्याद्धोंमलकंकरांतर्गतम् । अथाराजाऽशोकः संविग्नोऽयात्यान् पौरांश्चसंनिपात्यकथयतिकःसाम्भतंपृथिव्यामीश्वरः । ततोऽमात्यउत्थायाऽऽसनाद् येनराजाशोकस्तेनांजलिं प्रणम्योवाच-देवः पृथिव्यामीश्वरः अथराजाऽशोकः साश्रुर्दुर्दिननयनवदनोऽमात्यानुवाच --- दाक्षिण्यात् अनृतं हि किं कथयथ, भ्रष्टाधिराज्या वयम्,
शेपं त्वामपकार्धमित्यवसितं यत्र प्रभुतं मम् । ऐश्वर्च धिगनार्य मुद्धत नदीतोय प्रवेशोपमम्,
मयंन्द्रस्य ममापि यत् प्रति भयं दारिद्रय मभ्यागतम ॥
ततो राजाऽशोकः समीपगतं पुरुषमाहूयोवाच-भद्रमुख ! पूर्वगुणानुरागाद् भ्रष्टैश्वर्यस्यापि मम इमं तावद पश्चिमं व्यापारं कुरु-इदं ममार्धामलकं ग्रहाय कुकुटारामं गत्वा संघे निर्यातय,
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