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भूमि में क्या क्या उत्पादन थी । किस देश के लोग किस देश से सभ्यता-सौम्यता और व्यवहार कुशालता की शिक्षा प्राप्त कर अपने देश में उसका प्रचार किया करते थे । जनता का जीवन निर्माण तथा आत्म-कल्याण किस प्रकार से होता था। प्राचिन समय के अपने पूर्वजों की वीरता, उदारता. वात्सल्यता, परोपकारिता, व्यापार कुशलता-रण कुशलता एवं सामुद्रिक व्यापार कुशलता देश का मान, खान-पान आदिर सब बातें हम एक मात्र इतिहास से ही जान सकते हैं। तथा इन बातों पर (गौर) मनन करने के पश्चात् अपने जीवनोपयोगी बना सकते हैं।
देश में वर्ण-व्यवस्था कर तक अपनी उमति करती रही और कब और किस समय व किस कारण से उसमें विकार पैदा हुआ । आतियों का निर्माण कब और किस संयोग से हुआ कौन २ सी जातिएँ विदेशों में जाकर विदेशी कहलाई एवं इस के विपरीत कौन-कौन सी जातियां विदेशों से आकर यहां बली । देश के प्राचिन आचार विवार में क्या क्या रद्दों-बदल एवं मिश्रण हुआ ! हमारे देश की सभ्यता ने किस किस देश पर अपना प्रभाव डाला तथा विदेशियों के आचार-व्यवहार एवं सभ्यता का हमारे देश पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा। धार्मिक विषय में किस किस धर्म का कब कब प्रादुर्भाव हुआ और उन नूतन धर्मों ने क्या क्या न्यूनाधिक किया। धर्म के नाम पर देश में किस प्रकार फूट-कलह के बीज बोकर जनता को किस प्रकार-अधोगति में ला परका और इन कारणों से देश के सामूहिक संगठन को कैसे छिन्न-भिन्न कर डाला। एक ही -धर्म के अन्दर से अनेक धर्मो की सृष्टि क्यों रची गई और इससे देश को या फायदा अथवा नुकसान हुआ? यह सब बातें हम पुराने जमाने के इतिहास से ही जान सकते हैं। साथ ही हम उससे यह भी जान सकते हैं कि किन किन उपायों से इस विगड़ी अवस्था का सुधार हो सकेगा। : यहां पर हम अधिक लिख कर प्रस्तावना का वलेवर बढ़ाना नहीं चाहते । कारण कि विद्वद् समाज इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि साहित्य में इतिहास ही मानव जाति को उन्नति-पथ पर लेजाने वाला एक सच्चा साधन है। अतएव अपनी भाषी उन्नति की भभिलाषा रखने वाले प्रत्येक देहधारी मनुष्य का मुख्य भौर आवश्यक कर्तव्य है कि वह कम से कम अपने पूर्वजों के इतिहास को अवश्य पड़े।
२-हमारे पूर्वज और इतिहास:धत्तमान काल में भूत कालीन इतिहास प्राप्त होने में दुर्लभता का अनुभव करने वाले महाशय यहां तक कह उठते हैं कि प्राचीय समय के लोगों का इतिहास को भोर इतना आकर्षण नही था जितना कि अध्यात्म एवं तत्वज्ञान की भोर था? कारण वे लोग इतिहास लिखने में एवं उसका संरक्षण करने में इतनी अधिक रुचि न रखते थे? पर वास्तव में 'यह बात ऐसी नहीं है। हाँ, हमारे पूर्वज अध्यात्म एवं तात्विक ज्ञान की ओर विशेष रुचि रखते जरूर थे; पर इसका 'यह भर्थ नहीं कि वह इतिहास की उपेक्षा करते थे? नहीं. कदापि नहीं। वे जैसे अध्यात्म एवं तात्विक ज्ञान की ओर लक्ष्य रखते थे वैसी ही इतिहास की भोर भी उनकी अभिरुचि थी। इतना ही क्यों ? वे तो इतिहास को चिरस्थायी बनाने का भी प्रयत्न किया करते थे । इतिहास द्वारा यह स्पष्ट मालूम होता है कि अन्य देशों के विद्वान् इतिहास लिखना एवं उन्हें सुरक्षित रखना हमारे पूर्वजों से ही सीखे थे । प्राचीन काल में जब लेखन प्रवृत्ति अधिक न थी, उस अवस्था में भारतीय ऋषि-मुनि समस्त ज्ञानभण्डार कण्ठस्थ रखते थे। जब से लेखन वृत्तिका अधिक प्रचार हुआ तो उन्होंने अपना "मस्तिक का ज्ञान एवं तत्कालीन घटनाएं साद पत्र. साम्रपत्र, भोजपत्र, और पत्थर की चट्टानों पर लिख दिया करते थे। तत्पश्चात् जब कागज़ों पर लिखना प्रारम्भ हुभा उस समय से तो प्रत्येक घटनाएं खूब विस्तार से लिख दिया करते थे। जिसके प्रमाण भान पर्याप्त मिल रहे हैं। अभी ( मूगर्भ भावेषण से ) खुदाई के काम से. पंजाब एवं सिन्ध की सर हद भूमि से दो मगर ई. संवत् से ५००० वर्ष पांच हजार वर्ष पूर्व के बतलाये जाते हैं । उन दोनों नगरों से, जिसके नाम क्रमशः "हरप्या" और "मोहन जादरा" रखा गया है । कई पदार्थ ऐसे निकले हैं जिससे प्राचीन समय में भारत की सभ्पता का निश्चय हो चुका है । हतना ही, क्यों एक देवी की मूर्ति जिसके शरीर पर कपड़ा भी भा । खोदते हुए पाये गये हैं । तथा एक ध्यान मग्न मूर्ति भी प्राप्त हुई है।" इससे यह भी सिद्ध किया गया है कि आज से हज़ारों वर्ष पूर्व भी इस देश में
केवड़े का उत्पादन होता था तथा. देश में धर्म की भावना भी अच्छे परिमाण में थी। वे लोग धार्मिक मूर्तियों की पूजा-पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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