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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता] [वि० पू० ४०० वर्ष mmmmmmmmmmm समयनु छ, के जे वखते रत्नप्रभसूरिना पट्टधर यक्षदेवसूरि सिंधमां आव्या हता । अने सिंधमां अवतां तेमने घणु कष्ट उठाववु पडयु हतुं । आ यक्षदेवसूरिना उपदेश थी कक्क नामना एक राजपुत्रे जैन मंदिरो बंधाव्यों हतां, अने पछी दीक्षाधी हती। "मुनिश्री विद्याविजयजी कृत मारी सिंधयात्रा पेज १२" ९--"उएस या ओसवंश के मूल संस्थापक यही रत्नप्रभसूरिजी थे जिन्होंने आसवंश की स्थापना महावीर के निर्वाण से ७० वर्ष बाद उकेश ( वर्तमान श्रोसियां ) नगर में की थी । आधुनिक कतिपय कुलगुरु कहा करते हैं कि रत्नप्रभाचार्य जी ने बीये बाबीसे ( २२२ ) में श्रोसवाल बनाये यह कथन कपोल कल्पित है, इसमें सत्याँश बिल्कुल नहीं है । जैन पदावली और जैन ग्रन्थों में ओसवंश स्थापना का समय महावीर निर्वाण से ७० वर्ष बाद ही लिखा मिलता है जो वास्तविक मालूम होता है। आबू के मन्दिरों का निर्माण ग्रन्थ पृष्ट २ १०-मुनि श्री ललितविजयजी जो आप सदगुणानुरागी शान्तमूर्ति मुनि श्रीकपूरविजयजी महाराज के शिष्य हैं । आपने एक 'आगम सारसंग्रह' नाम: वृहद्रन्थ का निर्माण किया है जिसके सातवें भाग के पृष्ट १४३ पर लिखा है किः-"प्रथमे अानगर नो नाम उरकेशपट्टण हतुxxश्रीपार्श्वनाथ प्रभुना संतानिया श्रीरत्नप्रभसूरि x राजा उपलदेव X आदिकने प्रतिबोधी ३८०००० अभिय राजपूतों के जेनु अरखकमल विरुद छे इत्यादि" ११-उवएसगच्छह मंडणउ ए गुरु रयणप्पहरित, धम्मु प्रकासई तहि नयरे पाउ पणासइ दुरित ।। तसु पटलच्छीसिरिमउडो गणहरु जखदेवसूरि त, हंसवेसि जसु जसु रमए सुरसरीयजलपूरि त ॥ तसु पयकमलमरालुलउ ए ककसूरि मुनिराउत, ध्यानधनुषि जिणि भंजियउ ए मयणमल्ल भड़िवाउत॥ तसु सींहासणि सोहई ए देवगुप्तसूरि बईठु त, उदयाचलि जिम सहसकरो अगमतउ जिण दीठु त ।। तिह पहुपाटअलंकरणु गच्छभार धोरउ त, राजु करइ संजम तणउ ए सिद्धसरि गुरु एहुने । आम्रदेवमुनि कृत समरा समरसिंह पृष्ट २३४ ॥ १२- सब संसार की श्रार्यजातियों के क्रिया कांड कराने वाले गुरु ब्रह्मण हैं जब ओसवाल जाति के साथ ब्राह्मणों का कोई भी सम्बन्ध नहीं है इसका क्या कारण है ? उत्तर के लिये समरादित्य कथा का संस्कृत सार में एक श्लोक उद्धृत किया है और उसके साथ सम्बन्ध रखने वाली घटना प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होती है जिसमे महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की प्राचीनता स्वयं सिद्ध हो जाती है। यह तो श्राप पहिले पढ़ ही चुके हैं कि श्रीमालनगर से १८००० व्यापारियों के साथ ९००० ब्राह्मण भी उपकेशपुर में आये थे और यह बात है भी ठीक । कारण जहाँ यजमान जाते हैं उनके पीछे याचक भी जाया करते हैं क्यों कि याचकों का जीवनाधार यजमान ही होते हैं दूसरे यजमानों के संस्कारादि क्रिया काण्ड करने वाले वे ब्राह्मण ही थे उस समय के ब्राह्मणों ने इस सूत्र की भी रचना कर डाली थी कि 'ब्राह्मणां च जगत गुरु' बस फिर तो था ही क्या ब्राह्मणों ने अपनी सत्ता और जबर्दस्त बाड़ा बन्दी कर रक्खी थी कि अपने यजमान के घरों में कोई भी क्रियाकाण्ड करवाना होता तो सिवाय उनके गुरु के (ब्राह्मण) कोई दूसरा करा ही नहीं सकता था । यही कारण है कि उन ब्राह्मणों का जनता पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www. sary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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