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वि० पृ० ४०० वर्ष ]
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
एक समय का जिक्र है कि उत्पलदेवकुमार आपसी ताना के कारण अपमानित हो नगर से निकल गया उसकी इच्छा एक नया नगर बसा कर स्वयं राज करने की थी। जब कार्य बनने को होता है तब निमित्त कारण सब अनुकूल मिल ही जाता है । इधर तो राजकुमार अपमानित होकर नगर से निकल रहा था उधर प्रधान का पुत्र उहड़ कुमार भी संयोग वश अपमानित होकर राजपुत्र के साथ हो गया।
नया नगर बसाना यह कोई बच्चों का खेल एवं साधारण कार्य नहीं था पर एक बड़ा ही जबरदस्त कार्य था । अतः न अकेला राजकुमार कर सकता था और न मंत्रीपुत्र ही, पर कार्य निकट भविष्य में ही बनने को था कि कुदरत ने दोनों का संयोग बना दिया।
- जब दोनों नवयुवकों ने नगर को त्याग कर एक बड़ी आशा पर प्रस्थान कर दिया तब उनको प्रबल पुन्योदय के कारण शुकन वगैरह अच्छे से अच्छे होते गये । अतः क्रमशः वे रास्ता चलते चलते एक जंगल में होकर जा रहे थे वो रास्ते में एक सरदार मिला । उसने उन्हें तेजपुंज और चेहरे पर वीरता की झलक देख कर पूछा कि कुँवरजी कहाँ से पधारे और कहाँ जा रहे हो ? कुमार ने जवाब दिया कि हम श्रीमाल नगर से आये और एक नया नगर श्राबाद करने को जा रहे हैं। सरदार ने सुन कर आश्चर्य किया और कहा कुँवरजी नयानगर आषाद करना बच्चों का खेल तो है ही नहीं, आपके पास ऐसी कौन सी सामग्री है कि जिसके आधार पर आप नया नगर बसाने की बातें कर रहे हो ? कुमार ने जवाब दिया कि सामग्री हमारी भुजाओं में भरी हुई है जिससे हम नयानगर श्राबाद करेंगे। सरदार ने सोचा यह कोई राजवंशी है । अतः उसने प्रार्थना की कि कुदरजी दिन थोड़ा ही रह गया है, आज तो यहाँही विश्राम कीजिये । कुमार ने मंत्री की ओर देखा और दोनों ने एक मत होकर सरदार की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उसके साथ हो लिये। सरदार था विराट नगर का संग्रामसिंह नाम का एक साधारण राजपूत ।
सरदार ने दोनों मेहमानों को अपने घर लाकर भोजन पानी का स्वागत किया और अपने कुटुम्बियों से सलाह की कि अपने जालणदेवी कन्या षड़ी हो गई है, इन मेहमानों के साथ ब्याही जाय तो भविष्य में एक राजरानी पद को प्राप्त कर लेगी। अतः सरदार ने कुवरजी से प्रार्थना की कि आपने हमारा मकान पावन किया है तो इसको चिरस्थायी बनाने के लिये हमारी कन्या के साथ शादी कर लीजिये।
कुँवरसाहब ने जवाब दिया कि मैं एक मुसाफिर हूँ आप सोच समझ कर कार्य करें। सरदार-मैंने ठीक सोच समझ करके ही प्रार्थना की है जिसको श्राप स्वीकार कीजियेगा ।
जब सरदार का अति आग्रह हुआ तो मंत्रीकुमार ऊहड़ ने इसको शुभ शकुन एवं अच्छा निमित्त समझ कर सरदार संग्रामसिंह की प्रार्थना को इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि जब हम राज स्थापन कर पायेंगे तब आकर लग्न करेंगे। सरदार ने मंजूर करके सगाई की सब रस्म कर डाली । बस प्रभात होते ही दोनों कुमार वहाँ से रवाना हो गये । उस समय शकुन बहुत ही अच्छे हुये अतः दोनों का उत्साह बढ़ता ही गया।
एक सौदागर कई घोड़े लेकर जा रहा था। मंत्री ऊहड़ ने जाकर १८० अश्व इस शर्त पर खरीद कर लिये कि जब हम नगर श्राबाद करेंगे तब तुम्हारे इन प्रश्वों का मूल्य चुका देंगे। केवल उनके पचन पर विश्वास करके सौदागर ने अश्व दे दिये।
दोनों वीर अश्व लेकर क्रमशः ढेलीपुर ( देहली ) नगर में पहुँचे। उस समय वहाँ पर श्री साधु नामक राजा राज कर रहा था पर उसके ऐसा नियम था कि ६ मास राज कार्य देखता और ६ मास अन्ते
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