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________________ वि० सं० २१८-२३५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास कारण उस समय ओसवाल शब्द का जन्म भी नहीं हुआ था इस घटना के विषय वंशावलियों में कुछ कवित्त भी मिलते हैं । यद्यपि वे कवित इतने प्राचीन नहीं है पर सर्वथा निराधार भी नहीं है । आभा नगरी थी आव्यो, जग्गो जग में भाण । साचल परचो जब दीयो, जब शीश चड़ाई आण || जुग जीमाड्यो जुगत सु, दीधो दान प्रमाण । देशलसुत जग दीपता, ज्यारी दुनिया माने काँण ।। चूप धरी चित भूप, सैना लई आगल चाले। अरबपति अपार, खडवपति मिलीया माले ।। देरासर बहु साथ खरच सामो कौण भाले । घन गरजे वरसे नहीं, जगो जुग बरसे अकाले ।। यति सती साथे घणा, राजा राणा बड़ भूप । बोले भाट विरुदावली, चारण कविता चूप । मिलीया भोजक सांमटा, पूरे संक्ख अनूप । जग जस लीनो दान दे, यो जग्गो संघपति भूप ।। दान दियी लख गाय, लखलि तुरंग तेजाला । सोनो सौ मण सात, सहस मोतियन की माला । रूपानो नहीं पार, सहस करहा करमाला। वायेवावीस भल जागियो, तुं ओसवाल भूपाला ॥ ____ जगाशाह का विवार श्री शत्रुजय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा करने का था पर ऋतु ग्राम आगई थी अत: वे जा नहीं सके पर वहां से एक एक करोड़ रुपये दोनों तीर्थों के उद्घागर्थ भेजवा दिये और सब के साथ स्वाधर्मी भाइयों को सोने की कण्ठियों और वस्त्रों की पहरामणो देकर संघ पूजा की तत्पश्चात् संघ विसर्जन हुआ। जिस पर देव देवियों को प्रसन्नता हो वे पुन्योपार्जन करने में कमी क्यों रक्खे । शाह जगा ने इस प्रकार सुकृत कार्य करके अपना नाम अमर कर दिया था --- यह तो एक जगाशाह का हाल लिखा है पर उस जमाना में ऐसे कई दानेश्वरी हुए हैं और उन की इस प्रकार उदारता के कारण ही इस जाति की साधारण जनता ही नहीं पर बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने वही भारी इज्जत बड़ाई और सन्मान कर अनेक उपाधिों से भूषित किये थे। पट्टावलियो वंशावलियों आदि चरित्र ग्रन्थों में मूरिजी के शासन में अनेक भावुकों में संसार को असार जान कर दीक्षा को स्वीकार की थी जिनके कतिपय नाम १-भाडव्यपुर के भूग्गिोत्रीय हरपाल ने जैन दीक्षा ली २-पतालानी के डिडूगौत्रीय चूड़ा ने , ३-पाड्यपुरा के सुघड़गोत्रीय पहाड़ ने ४-नागपुर के चारड़गोत्रीय खंगार ने ५-संखपुर के भलोटगौत्रीय खीवसी ने ६-भावाणी के श्री श्रीमाल गौ० गेंदादि ९ जने ७-करगोट के चोरडिया जाति श्रादू ने , ८-खटकुंप के भाद्रगोत्रीय शंख ने ९-भावोली के प्राग्वटीय हप्पा ने , * यह कवित्त इतना पुराना तो नहीं है पर चली आई दंतकथा के अनुसार किसी पिछले कवि ने उस कहावत को कविता का रूप दे दिया हो तो कोई असंगत नहीं कहा जा सकता है। Jain Ed & scnternational For Private & Personal use Only [ सरीश्वरजी के हाथों से दिया word
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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