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वि० सं० १५७-१७४-वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
की व्याख्यान शैली इस कदर की थी कि बहुत से विधर्मी लोग भी जैनधर्म के परमोपासक बन गये । इतना ही क्यों पर कई लोग संसार को असार समम कर सूरि जी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को भी तैयार हो गये! कई भक्त लोगों ने स्वपर कल्याणार्थ जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया था और उन मन्दिरों के लिये कई १००० नयी मूर्तियें बनाई थीं । मथुरा के श्रीसंघ के लिये यह समय बड़ा ही सौभग्य का था कि एक ओर तो श्री भगवतीसूत्र की समाप्ती का महोत्सव दूसरी ओर कई ६० नर नारियों की दीक्षा के लिये तैयारी, तीसरे सहस्र मूर्तियों की अंजनसिलाका, चतुर्थ नूतन बने हुये मन्दिरों की प्रतिष्ठा फिर तो कहना ही क्या था,मथुरा मथुरा ही बन गई थी। इस सुअवसर पर अनेक नगरों के श्रीसंघ को आमंत्रण पूर्व के बुलवाया गया था । आस पास में बिहार करने वाले साधु साच्चियां भी गहरी तादाद में आ आकर मथुरा को पावन बना रहे थे। इन शुभ कार्यों का शुभ मुहूर्त माघ शुल्क पंचमी का निश्चय हुआ था और पूर्वोक्त कार्यों के अतिरिक्त सूरिजी ने अपने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। ठीक समय पर पूर्वोक्त सब कार्य पूज्य पाद श्राचार्य ककसूरीश्वरजी महाराज के शुभ कर कमलों से सम्पदित हुआ।
१-श्रीमदभगवती सत्र की समाप्ति का महोत्सव २-साठ मुमुक्षुओं को भगवत जैन दीक्षा ३- एक हजार मूर्तियों की अंजनसिलाका ४-नूतन बने हुये पाँच मन्दिरों की प्रतिष्ठायें ५-विशालमूर्ति आदि पांच मुनियों को उपाध्याय पद ६-सोमतिलक आदि सात साधुओं को पण्डित पद ७-धर्मशेखरादि सात साधुओं को वचनाचार्य पद । ८-कुमार श्रमणादि ग्यारह साधुओं को गणिपद।
इनके अलावा कई दश हजार अजैनों को जैनधर्म में दीक्षित किये इत्यादि सूरिजी के पधारने एवं विराजने से जैनधर्म की खूब भावना एवं उन्नति हुई।
दुष्कालादि के बुरे असर से जैन जनता रूपी बगीचा कुम्हला रहा था जिसको उपदेशरूपी जल से सिंचन कर जैनाचार्यों ने पुनः हरा भरा गुलजार यानी गुलचमन बना दिया।
सरि के पास ज्यों ज्यों साधु संख्या बढ़ती गई त्यों त्यों योग्य साधुओं को पवियां प्रदान कर अन्योन्य क्षेत्रों में धर्मप्रचार निमित्त भेजते गये । यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि ज्यों २ साधुओं का विहार क्षेत्र विस्तृत होता जाया। त्यों २ धर्म का प्रचार अधिक से अधिक बढ़ता जायगा।
पांच छः शताब्दियों में तो महाजन संघ एवं उपकेशवंश लोग आस पास के प्रान्तों में वटवृक्ष की तरह खूब फैल गये थे । दूसरे जिन २ प्रान्तों में आचार्यों का विहार होता वहां नये जैन बना कर उन्हें महाजन संघ में शामिल कर उनकी वृद्धि कर दी जाती थी और उपकेशगच्छाचार्य जैनधर्म महाजनसंघ एवं उपकेशवंश की उन्नति करना अपनी जुम्मेदारी एवं कर्तव्य ही समझते थे।
श्राचार्य कक्कसूरिजी मथुरा से विहार कर धर्मप्रचार करते हुये मरुधर की ओर पधार रहे थे। यह शुभ समाचार सुन मरुधर बासियों के ग्राम नगर एवं लोगों के हर्ष का पार नहीं रहा क्यों कि गुरु महा. राज का चिरकाल से पधारना इसके अलावा श्री संघ के लिये क्या हर्ष हो सकता है ।
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