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आचार्य यक्ष देवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५-५५७
कुलवास में बीस वर्ष रहकर कम से कम साधिक नौ पूर्व का ज्ञान हासिल करना चाहिये पश्चात् गुरु आज्ञा ही जिनकल्पीपना धारण किया जाता है अतः न तो इस समय बज्रऋषभनाराच संहनन है और न सब साधु साधिक नौ पूर्व का ज्ञान ही पढ़ सकते हैं इस हालत में जिनकली साधु कैसे हो सकते हैं और कैसे जिनकल्पी मुनि पना का आचार पालन ही कर सकते हैं इत्यादि ।
शिवभूति के जिनकल्लीपना का तो एक वायना था उसके हृदय में तो रत्न कॉबल खट रही थी कि उसने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ता हुआ कहा कि थोड़ा रखे तो भी परिग्रह है और अधिक रखे तो भी परिग्रह | फिर इस पाप का मूल परिग्रह को रखा ही क्यों जाय अर्थात् साधुओं को एकान्त-नग्न ही रहना चाहिये | और जिनकरुपीपना को विच्छेद बतलाना यह केवल वस्त्र पात्र पर ममत्व एवं कायरताका ही कारण है कि अपनी कमजोरी से उस परिग्रह को छोड़ा नहीं जाता है। यदि मनुष्य चाहे तो अभी भी जिनकल्पीत्व पालन कर सकता है इतना ही क्यों पर मैं इस काल में भी जिनकल्पी रह सकता हूँ ?
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२ ॥
सूरिजी ने पुनः शिवभूति को समझाने की कोशिश करते हुए कहा शिवभूति ! " धर्मोपकरणमेवैतत् नहु परिहः" अर्थात् धर्मोपकरण को परिग्रह नहीं कहा जाता है और शास्त्रों में भी कहा है कि :जन्तवो बहवः सन्तिदुर्दर्शा मासचक्षुषाम् । तेभ्यः स्मृतं दयार्थंतु रजोहरणधारणम् ॥ आसने शयने स्थानेनिक्षेपे ग्रहणे तथा । गात्रसंकोचने चेष्टं तेन पूर्वं प्रमार्जनम् ॥ संति संपतिमाः सच्चाः सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका ॥ भवन्ति जन्तवो यस्माद्भक्तपानेषु केषुचित् । तस्मात्त पां पीरक्षार्थं, पात्रग्रहणमिष्यते ॥ ४ ॥ 1 सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपती सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थीदें, स्मृतं चीवरधारणम् ॥ ५ ॥ शीतवातातपैर्दशै-र्मशकैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति ॥ ६॥ तस्य त्वग्रहणे यत्स्यात्, क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञान ध्यानोपधातो वा, महान दोषैस्तदैव तत् ॥ ७ ॥ यः पुनरतिसहिष्णुतयैतदन्तरेणापि न धर्मवाधकस्तस्य नैतदस्ति ।
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३ ॥
य एतान् वर्जयेोपान्, धर्मोपकरणाद्यते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं यः स्याजिन इव प्रभुः ॥ ८ ॥
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इत्यादि बहुत समझाया परन्तु प्रबल मोहनीय कर्मोदय से शिवभूति ने गुरु के वचनों को नहीं माना और वस्त्र छोड़ कर एवं नग्न हो कर उद्यान के एक भाग में जाकर बैठ गया । शिवभूति की बहन ने भी दीक्षा ली थी वह अपने भाई शिवभूति मुनि को वन्दन करने को उद्यान में गई थी। शिवभूति ने उसको ऐसा विपरीत उपदेश दिया कि वह भी कपड़े छोड़ कर नग्न हो गई। जब वह का ( साध्वी ) नगर में भिक्षार्थं गई तो उसको नग्न देख लोग अवहेलना एवं निन्दा करने लगे क्योंकि पुरुष तो अन्य मत में भी परम हँसादि नग्न रह सकता है पर स्त्री को नग्न किसी ने नहीं देखी थी । श्रतः शिवभूति की बहिन साध्वी को नग्न देख लोग निन्दा करें यह बात स्वभाविक ही थी । साध्वी को नग्न फिरती देख एक वैश्या को लज्जा आ गई। उसने एक लाल शाटिका ( वस्त्र ) अपने मकान से उस नम साध्वी पर डाला । साध्वी ने उस वस्त्र को लेजा कर अपने भाई शिवभूति (नग्न) मुनि के पास जाकर रख कर सब हाल कह सुनाया । आखिर तो शिवभूति भी मनुष्य ही था । उसने सोचा कि स्त्रियों को नग्न रहना श्रज
भी अच्छा नहीं है।
दिगम्बर मतोत्पत्ति ]
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