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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५१५-५५७ मेरा साधुधर्म की आराधना के कारण स्वयं मरना स्वीकार कर लिया उस धर्म के प्रभाव से ही मैं स्वर्ग में देव यानि को प्राप्त हुआ हूँ यदि आप उस पाप से मुक्त होना चाहते हो तो कल आपके वहां जिनसेन नामक आचार्य ५०० साधुओंके साथ पधारेंगे । आप सब लोग उनका सन्मान एवं सत्कार कर तथा व्याख्यान सुन जैनधर्म एवं अहिंसापरमोधर्म को स्वीकार कर लेना हिंसासे किये हुए कर्म अहिंसा से ही छूटते हैं। हे राजन् ! जैनधर्म पवित्र एवं पतितों को पावन और अधम्मों का उद्धार करने वाला धर्म है इत्यादि कह कर देवता तो अदृश्य हो गया बाद राजा की श्रांखें खुल गई सावचेत हो कर राजा सोचने लगा कि आज यह कैसा स्वप्न आया है क्या मैंने स्वप्न में देखा वह सब सत्य है ? यदि सत्य ही है तो मेरी क्या गति होगी ? वास्तव में मैंने बड़ा भारी अनर्थ किया है एक साधारण जीव को मारना भी पाप है तो मैंने एक जगउद्धारक महात्मा को मरवा डाला है इससे सिवाय नरक के और मेरी क्या गति हो सकेगी ? राजा ने सोचा कि पहले तो मुझे रोग की शान्ति का उपाय करना चाहिये । अतः राजा ने ८४ ग्रामों के लोगों को आमन्त्रण करके खंडेला नगर में बुलाये और शान्ति के इच्छुक लोग तत्काल श्रा भी गये। इधर से आचार्य जनसेन अपने ५०० शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए खंडेला नगर की ओर पधार गये । जब राजा ने सुना कि जैनाचार्य उद्यान में पधार गये हैं तब उसको स्वप्ने की बात याद आ गई जो मुनिने कही थी राजा इसको हो शान्ति का कारण समझ कर आये हुए ८४ ग्रामों के लोगों के साथ चल कर आचार्य श्री के पास जा कर वन्दन के पश्चात् प्रार्थना की कि हे प्रभो ! मैंने अज्ञान के वश परमार्थ को न समझ कर एक निम्रन्थ मुनि की हिंसा करवा डाली है उसका कूटक फल परभव में तो मिलेगा ही पर इस भव में तो हाथोंहाथ मिल रहा है रोग में खूब वृद्धि हो रही है एक मेरे कारण यह ८४ ग्रामों के लोग दुःख पा रहे हैं पूज्यवर ! श्राप दया के अवतार, करुणा के समुद्र और सब जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाले हैं अतः आप कृपा कर हम सब लोगों को जीवन दान दिलावे इत्यादि । आचार्य श्री ने राजादि उपस्थित जनता को उपदेश दिया कि हे भव्यो ! जीव मात्र का कर्तव्य है कि बड़ा से लगा कर छोटा जीवों की रक्षा करे क्योंकि जीव के धन माल राजपाटादि सब सामान छीन लेने पर जितना दुःख नहीं होता है इतना दुःख प्राण हरण में होता है जिसमें संयमी मुनि के प्राण हरण करना इससे तो सिवाय नरक के और क्या गति हो सकती है इत्यादि विस्तार से उपदेश दिया और अन्त में फरमाया कि अब आप इस पाप से तथा रोग से मुक्त होना चाहते हो तो आपके लिये एक ही उपाय है कि आप पवित्र जैनधर्म को स्वीकार कर इसकी ही आराधना एवं प्रचार करो । बस, फिर तो देरी ही क्या थी राजा खंडेलगिरी के साथ ८४ प्रामों के लोग जो वहां उपस्थित थे सबने बड़ी खुशी से जैनधर्म स्वीकार कर लिया। बाद आचार्य श्री ने उनको धर्म की विधि विधान बतलाते हुए तीर्थकर भगवान की मूर्ति का स्नात्र वगैरह का उपदेश दिया उन लोगों ने जैन मंदिरों में जाकर स्नात्र कर प्रक्षाल का जल अपने अपने घरों में तथा ८४ ग्रामों वाले उस जल को अपने ग्रामों में ले जाकर सर्वत्र छांटने से रोग की शान्ति हो गई जिससे उन लोगों को धर्म पर और भी दृढ़ विश्वास हो गया। ____ उस समय ८४ प्रामों के लोगों ने जैनधर्म को स्वीकार किया था अतः उन समूह की चौरासी जातियें बन गई इसमें कई तो प्रामों के नाम से कई प्रसिद्ध पुरुषों के नाम से जिसमें जो ग्राम का मुख्या था उसका नाम अग्रेश्वर रखा गया था उन ८४ ग्राम से ८४ जातिय बन गई जिन्हों का नाम इस प्रकार है-- खंडेलवालों की ८४ जातियें ] ५३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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