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जैनधर्म की माचीनता
जैनधर्म एक अति प्राचीन म्वतन्त्र विश्वव्यापि आत्मकल्याण करने में मुख्य कारण और अनादिकाल से अविच्छन्न रूप से चला आया उच्चकोटि का पवित्र सर्वश्रेष्ठ धर्म है इसकी आदि का पता लगाना बुद्धि के बाहर की बात है । फिर भी काल ए क्षेत्र की अपेक्षा जैनधर्म सादि भी है जैनधर्म की नींव स्याद्वाद एवं विज्ञान के आधार पर रखी गई है इसका आत्मवाद अध्यात्मवाद परमाणुवाद सृष्टिवाद और कर्म फिलासोफी के कहने वाले साधारण व्यक्ति नहीं पर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतरागदेव थे जैनधर्म जितना विशाल है उतना ही गंभीर भी है । जैनधर्म एक समुद्र है इसके थोड़े थोड़े छोटे उड़े हैं जिससे इतर लोगों ने अपनी अपनी दूकानें लगा रखी हैं अर्थात् अन्य धर्म वालों ने जो कुछ शिक्षा पाई है तो जैनधर्म से हो पाई है।
वर्तमान समय ऐतिहासिक युग कहलाता है अाधुनिक धुरंधर विद्वानों में इतिहास का आसन सर्वोपरि माना गया है इतिहाप्त ही अधिक विश्वास का पात्र एवं उच्च आदर्श है जिसमें भी जैनधर्म के विषय तो इतिहास ने और भी विशेष प्रकाश डाला है कारण गत एक शताब्दी पूर्व जैनधर्म के विषय में जनता में अनेक प्रकार भ्रान्तियें फैली हुई थीं जैसे कई कहते थे कि जैनधर्म वैदिकधर्म की एक शाखा है कई ने इसे बोद्धधर्म की शाखा मानली थी कई एकों ने जैनधर्म महावीर ने चलाया तो कई ने पार्श्वनाथ ने ही जैनधर्म प्रचलित किया तब पुराणों की बिना सिर पैर की गाथायें तो और भी अजब ढंग की ही थीं इतना ही क्यों पर कई एक ने तो यहाँ तक कल्पना करली थी कि गोरखनाथ के शिष्यों ने ही जैनधर्म चलाया था इत्यादि जिसके दिल में पाया जैनधर्म के विषय घसीट मारा । पर जब सहस्र किरण युक्त सूर्यरूपी इतिहास का सर्वत्र प्रकाश हुआ तब न भ्रमित मन वालों का अज्ञान अन्धकार दूर हुआ और वे लोग जैनधर्म को अति प्राचीन एवं स्वतन्त्र धर्म मानने लगे फिर भी भारतवर्ष में ऐसे मनुष्यों का सर्वत्र प्रभाव नही हुआ ही जो पुराणी लकोर के फकीर बने हुए आज बीसवीं शताब्दी में भी पन्द्रहवीं शताब्दी के स्वप्न देख रहे हैं।
पाठकों को एक बात पर अवश्य लक्ष देना चाहिये और वह यह है कि किसी भी धर्म पर कुछ लिखना चाहे तो पहिले उस धर्म के साहित्य का अवश्य अध्ययन करना चाहिये । बिना साहित्य के देखे किसी धर्म के विषय कुछ लिख देना केवळ हांसी का ही पात्र बनना पड़ता है जैसे स्वामि शंकराचार्य एवं स्वामि दयानन्द सरस्वती ने जैनधर्म के विषय में लिखा है पर आज उन्हीं के अनुयायी कहते हैं कि स्वामीजी जैनधर्म के सिद्धान्तों को ठीक समझ ही नहीं पाये थे । जब उक्त विद्वानों का भी यह हाल है तब साधापण व्यक्तियों के लिये तो कहना ही क्या है वर्तमान में भी हम ऐसे लेखकों को देख रहे हैं कि दूसरे धर्म के साहित्य को स्पर्श करने मात्र से महापाप मानने वाले उन धर्मों के लिये लिखने के लिये उत्साही बन पाते हैं आखिरकार नतीजा वही होता है जो ऐसे कामों में होना चाहिये । अतः मेरी यही प्रार्थना है कि कोई भी व्यति किसी भी धर्म के लिये लेखनी हाथ में ले उसके पूर्व उस धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का भक अध्ययन करले ।
जैनधर्म के शास्त्रों के आधार पर जैनधर्म अति प्राचीन है। इतना ही क्यों पर हिन्दू धर्म के माणों से भी जैनधर्म इतना ही प्राचीन प्रमाणित होता है कारण हिन्दू धर्म में सब से प्राचीन ग्रन्थ वेदों माना है यहां तक कि वेद ईश्वर कथित भी माने जाते हैं उन्हीं वेदों के अन्दर जैनधर्म का उल्लेख किया मिलता है इससे सिद्ध हो जाता है कि वेदों के पूर्व जैनधर्म विद्यमान था उन वेदों और पुराणों के ल माण मैंने इसी प्रन्थ के पृ पर उद्धत किया है अतः यह पीष्टपेषण करने की आवश्यकता ही समझी जाती है।
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