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आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ३२१
___ सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर हुआ करता था और जनता आपके उपदेशामृत का बड़े ही उत्साह से पान कर आनन्द को प्राप्त होती थी। राव करत्था तथा आपकी पत्नी कुमारदेवी और देवसिंह बेना नागा निरन्तर सूरिजी की सेवा उपासना करते एवं व्याख्यान सुनाते थे। देवसिंह की तत्त्वज्ञान की ओर अधिक अभिरुचि होने से वह व्याख्यान के सिवाय अन्य टाइम में भी सूरिजी के पास आया करता था और आत्म कल्याण की भावना से ज्ञानास्यास भी किया करता था । सूरिजी ने देवसिंह के उत्तम लक्षणों एवं हस्तरेखा वगैरह से यह अनुमान लगाया कि यदि ऐसा होनहार भव्यात्मा यदि दीक्षा ले तो स्वकल्याण के साथ अनेकों का कल्याण कर शासन की प्रभावना एवं उन्नति कर सकता है।
____ एक दिन सूरिजी ने मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री का व्याख्यान करते हुए फरमाया कि अव्वल तो इस प्रकार शुभ सामग्री मिलना ही मुश्किल है यदि किसी भव में किये हुए शुभकर्म के उदय मिल भी जाय तो उसका सदुपयोग कर आत्म कल्याण करना तो और भी कठिन है। श्रोताओ ! मनुष्य की तीनावस्थाएं होती हैं जसमें मुख्य बालावस्था ही हैं इस अवस्था में प्रारम्भ किया हुआ धर्म कार्य विशेष कल्याणकारी होता है उदाहरण के तौर पर लीजिये यदि कोई उदार पुरुष अपने अमूल्य रत्नादि खजाना के लिए ऐसा ऑर्डर करदे कि एक घंटा भर के लिये जितना द्रव्य लेना हो ले लीजिये ? क्या समझदार इस सुअवसर को हाथों से जाने देगा ? नहीं। पर कोई व्यक्ति यह विचार करें कि मैं कुछ देर से जाकर द्रव्य ले आऊंगा। पर उस प्रमादी के लिये टाइम निकल जाने के बाद द्रव्य हाथ आ सकता है ? नहीं हर्गिज नहीं। सूरिजी ने इस उदाहरण से यह बतलाया कि रत्रों के खजाने सदृश तो बाल्यावस्था है, क्यों कि बाल्यावस्था से धर्माराधन में लग जाय तो तप संयम ब्रह्मचर्य्य ज्ञान ध्यानादि की वह पूर्णतया अाराधन कर सकता है। दूसरी मध्यम अवस्था में भी संसार से विरक्त हो मोक्ष मार्ग की साधना करे तो रत्न नहीं पर स्वर्ण के खजाने के तुल्य कहा जा सकता है और वृद्धावस्था तो चांदी के खजाने के सदृश्य ही रह जाता है, पर इस प्रकार की सामग्री प्राप्त होने पर भी आलस्य प्रमाद एवं विषय विकार में जिन्दगी समाप्त कर देता है उसको न तो धर्म की आराधना का लाभ मिलता है और न वह भविष्य में ऐसी सामग्री ही पा सकता है। अतः बुद्धिमानों का क्या कर्त्तव्य है उसको खूब गहरी दृष्टि से आप स्वयं को सोचना चाहिये इत्यादि ।
बस, जिन जीवों का उपादान कारण सुधरा हुआ होता है तो उनके लिये थोड़ा सा निमित्त कारण भी महान प्रभावकारी हो जाता है । देवसिंह ने सूरिजी के वचनों को सुनकर निश्चय कर लिया कि सूरिजी महाराज का कहना सोलह आना सत्य है । जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और मर भी गया पर धर्म की आराधना नहीं की जिससे ही संसार में परिभ्रमण कर रहा है आत्म कल्याण के लिये सामग्री की आवश्यकता है वह इस समय सबकी सब प्राप्त हो गई है अब इसमें प्रमाद करना एक प्रकार की बड़ी से बड़ी भूल है इत्यादि देवसिंह के हृदय में अनेक लहरें एवं तरंगें उठने लगी खैर, व्याख्यान खतम होने पर देवसिंह अपने मकान पर आगया और अपनी माता से कहा क्यों माता आज आपने प्राचार्यजी का व्याख्यान सना है न ? माता-हाँ बेटा, आज क्या मैं तो हमेशा ही व्याख्यान सुनती हूँ। बेटा-फिर आपने व्याख्यान का क्या सार ग्रहण किया ? माता-बेटा सार क्या, सामयिक पौषध उपवासादि धर्म कार्य करते रहना । बेटाहाँ, यह तो ठीक है पर इससे जल्दी कल्याण नहीं होता है । जैसे किसी व्यापारी के दस रुपये का हमेशा
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