SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 797
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० १५७-१७४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास यह चन्द्र और सूर्य्य पृथ्वी पर अवतीर्ण हुये है । सूरिवरों की वात्सल्यता का संघ पर अच्छा प्रभाव हुआ दोनों सूविरों ने धर्म देशना दी । तत्पश्चात् परिषदा जयध्वनी के साथ विसर्जन हुई । श्रमण संघ में इतना धर्मस्नेह एवं वात्सल्यता थी कि वे पृथक २ दो गच्छों के होने पर भी, एक ही गुरु के शिष्य हो इस प्रकार से व्यवहार रखते थे । आचार्य कक्कसूरिजी दीक्षा लेने के बाद कोरंटपुर पहली बार ही पधारे थे । श्रीसंघ की इच्छा थी कि आचार्यश्री का चतुर्मास यहां ही हो और साथ में आचार्य नवप्रसूरि का चतुर्मास हो जाय तत्र तो सोना और सुगन्ध सा काम बनजाय । अतः एक दिन श्रीसंघ ने एकत्र हो दोनों सूविरों से चतुर्मास की विनती की जिसको लाभालाभ का कारण समझ कर दोनों सूरियों ने स्वीकार करली। बस फिर तो था ही क्या। कोरंटपुर के घर २ में आनन्द मंगल मनाया जाने लगा | पहले जमाना में चतुर्मास के लिये लम्बी चौड़ी विनतियें एवं मनुहारों की जरुरत नहीं थी साधु अपनी अनुकुलता देख लेता और साथ में लाभालाभ का अनुभव कर लेतें । वस चतुर्मास की स्वीकृति दे ही देते। कारण पहले जमाना में न तो साधुओं के किसी प्रकार का खर्चा रहता था कि किसी धनाड्य की उनको आवश्यकता रहती थी और न वे आडम्बर की ही इच्छा रखते थे वे तो जनकल्याण और शासन की प्रभावना को ही लक्षमें रखते थे । तब ही तो वे जैनधर्म की उन्नति कर पाये थे । आचार्य कक्कसूरिजी ने कुछ समय कोरंटपुर में स्थिरता की। बाद वहां से विहार कर भीन्नमाला, सत्यपुरी, शिवगढ़, पद्मावती, चन्द्रावती आदि क्षेत्रों में विहार करते हुये आबुदाचल की यात्रा की पुनः सेविहार करते हुए कोरंटपुर पधार गये और आचार्य नन्नसूरि के साथ चतुर्मास कोरंटपुर में कर दिया। श्राप युगल सूरीश्वरों के विराजने से धर्म की अच्छी जागृति और कई अपूर्व धर्म कार्य हुये । यह बात तो हम पूर्व लिख आये हैं कि उपकेशगच्छाचायों के लिये यह तो एक नियम सा बनगया था कि सूरिपद प्राप्त होने के पश्चात् कम से कम एक बार तो सब प्रान्तों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दे दिया करते थे तदनुसार आचार्य कक्कसूरिजी महाराज भी मरुधर से लाट, सौराष्ट्र कच्छ, सिंध, पांचालादि प्रान्तों में विहार कर आप मथुरा में पधारे थे । वहाँ हंसावली का शाह जसा अपने पुत्र राजा को साथ लेकर सूरिजी के दर्शन एवं हंसावली पधारने की विनती करने के लिये आये थे और सूरिजी ने उन भावुकों की प्रार्थना को स्वीकार कर विहार करते हुये क्रमश: हंसावली पधारे और वहां चतुर्मास कर शाह जसा के बाल कुमार राणा के संवपतित्व में विराट् संघ के साथ तीथों की यात्रा करते हुये सिद्धगिरी पधारे और वहाँ संघति बालकुमार राणा आदि कई भावुकों को दीक्षा दी । तदान्तर सूरिजी ने विहार कर सोपार पट्टन पधारे वहाँ की जनता को धर्मोपदेश देकर धर्म का प्रभाव बढ़ाया बाद आस पास के उदेश में विहार कर पुनः मरूधर में पधारे। इस समय आपकी अवस्था वृद्ध होगई थी तथापि क्रमश: विहार करते हुए आप कोरंटपुर पधारे वहाँ के श्रीसंघ ने आपका खूब उत्साह पूर्वक स्वागत किया और प्रार्थना पूज्यवर ! श्रापकी वृद्धास्था है अब कृपा कर यहां स्थिरवास कर दीजिये ! सूरिजी ने कहा जहाँ तक विहार होसके साधुओं को विहार करना चाहिये परन्तु शरीर से लाचार हो जाय तब एक स्थान स्थिरवास करना ही पड़ता है जैसी क्षेत्रस्पर्शना होगा वही बनेगा एक समय आचार्य श्री कक्कसूरि अर्द्धनिद्रा में सो रहे थे कि देवी सच्चायका ने श्राकर वंदन किया। सूरिजी ने धर्मलाभ देकर पूछा देवीजी इस समय आपका शुभागमन कैसे हुआ है ? देवी ने कहा कि मैं ५६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ युगलाचार्यों का कोरंटपुर में www.jahelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy