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वि० सं० २९८-३१० वर्ष
[भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सूरिजी ने अपने योग बल से राजकुँवर के विषय को अपहरण कर लिया अतः राजकुंवार सचेत होकर इधर उधर देखने लगा तो उसकी माता ने कहा बेटा ! तू आज नये जन्म में आया है । हम लोगों ने बहुत समझाया था कि तू रात्रि भोजन मत कर अर्थात् रात्रि भोजन का त्याग करदे पर तू नहीं माना इसका ही फल है कि तेरे लिये स्मशान की तैयारी कर दी थी पर कल्याण हो पूज्य दयालु आचार्य देव का कि जिन्होंने तुमको जीवन दान दिया है। अब तू जैनधर्म की शरण ले और रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग कर दे । गजकुंवर ने केवल माता के कहने से ही नहीं पर स्वयं अनुभव करके मिथ्याधर्म और अधर्म प्रवृति का त्याग कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रसंग पर राजकुँवर के पक्ष में जो लोग थे उन्होंने भी जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। अतः नगर भर में जैनधर्म की भूरि २ प्रशंसा होने लगी और सब लोग कहने लगे कि जैनाचार्य कैसे दयालु होते हैं कि एक राजकुँवर को जीवन दान देकर महान् उपकार किया है।
बस, दूसरे दिन व्याख्यान में सूरिजी ने रात्रि भोजन के विषय में खूब जोर से कहा कि रात्रि भोजन करना जैनशास्त्रों में केवल साधुओं के लिये ही नहीं पर गृहस्थों के लिये भी बिल्कुल मना किया है । प्रायः जैनधर्म पालन करने वाले रात्रि भोजन नहीं करते हैं क्यों कि रात्रि समय तमाम पदार्थ अभक्ष्य बतलाये हैं। रात्रि भोजन से दूसरे जीवों की हिंसा तो होती ही है पर कभी कभी स्वयं रात्रि भोजन करने वाले को भी काल कबलिन बनना पड़ता है। और इस प्रकार मरने से भविष्य में भी गति नहीं होती है । तथा जैनधर्म के इस उत्तम नियम को अन्य धर्म वालों ने भी अपनाया है एवं उन लोगों ने भी अपने धर्म प्रन्थों में रात्रि भोजन का खूब जोरों से निषेध किया है । नमूने के तौर पर देखिये:
चत्वारो नरकद्वाराः प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव सन्धानानन्त कायके । मृते स्वजन मात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥
रक्तीभवन्ति तोयानिअन्नानि पिशितानि च । रात्रौ भोजन सत्कस्य ग्रासे तत्मांसभक्षणम् ॥ चत्वारि खलु कर्माणि सन्ध्याकाले विवजयेत् । आहारं मैथुनं निद्रा स्वाध्यायं च विशेषतः ।। आहाराज्जायते व्याधिः कूरगर्भश्च मैथुनात । निद्रातों धननाशश्चं स्वाध्याये मरणं भवेत् ।। तत्त्वं मत्वा न भोक्तव्यं रात्रौ पुंसा सुमेधसा । क्षेमं शौचं दयाधर्म स्वर्ग मोक्षं च वांछता । नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ।। भानोः करैरसंस्पृष्ट मुच्छिष्टं प्रेतसंचारात् । सूक्ष्मजीवाकुलं वापि निशि भोज्यं न युज्यते ॥ मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कूर्याज्जलोदरम् । कुरुते माक्षिका कान्ति कुष्टं रोगं च कोलिकः ।। कटको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यंजनान्तर्निपतस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ बिलग्नश्च गले वालः स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥ नापेक्ष्य सूक्ष्मजन्तूनि निष्पत्रात्याशुकान्यपि । आप्युद्यत्केवलज्ञानैर्नादृतं यन्निशाशनम् ॥ ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दीवाकरे । नक्तं तद्धि विजानीयान्न नक्तं निशि भोजनम् ॥ संध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा मुक्त कुलोद्वह । सर्ववेलां व्यतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥
[ रात्रि भोजन निषेध का उपदेश
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