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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता । [वि० पू० ४०० वर्ष शंका नं०६ - प्रोसवालों की उत्पत्ति के समय के सम्बन्ध में कुछ व्यक्ति विक्रम की ८ वीं कुछ दशवीं और कुछ ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी का अनुमान करते हैं। और कहते हैं कि इस विषय के प्रमाण तो हमारे पास कुछ भी नहीं हैं, परन्तु ओसवाल जाति के शिलालेखादि कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते हैं अतः अनुमान किया जा सकता है कि मोसवाल जाति की उत्पत्ति विक्रम की ८ वी १० वीं या ११ वीं शताब्दी में हुई होगी? समाधान-पहिले ही हम सिद्ध कर चुके हैं कि 'ओसवाल' शब्द इस जाति की उत्पत्ति के समय का नहीं है बल्कि 'महाजनसंघ' और उपकेशवंश शब्दों का रूपान्तरित नाम है। इस रूपान्ततरित नामकरण का समय वि. की ११ वीं शताब्दी है । इसलिए इस ओसवाल शब्द के सम्बन्ध में ११ वीं शताब्दी के पूर्व शिलालेख इत्यादि ऐतिहासिक साधन खोजना व्यर्थ है । क्योंकि जिस नाम का प्राचीन काल में जन्म ही न हुआ हो उसका अस्तित्व मिले ही कहां से ? आज-कल कई लोगों को यह एक प्रकार का चेपी रोग लग गया है कि वे स्वयं तो कुछ परिश्रम करते नहीं हैं। किन्तु प्रत्येक वस्तु के लिए कह उठते हैं कि अमुक वस्तु को हम नहीं मानते क्यों कि इसके प्रमाण के लिए शिलालेख नहीं मिलते हैं । तो क्या जिनका शिलालेख नहीं मिले, वे सब घटनायें असत्य ही समझी जाती है ? साथ ही जो लोग ओसवालों की उत्पत्ति वि० की ८ वी, १० वीं एवं ११ वीं शताब्दी की कहते हैं; क्या वे शिलालेखादि ऐतिहासिक साधनों एवं प्रमाणों से प्रमाणित कर सकते हैं ? नहीं उनके पास तथ्यहीन एक मनगढन्त कथनमात्र के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है। वि० की ८ वीं से १० वीं शताब्दी तक का इतिहास इतना अंधेरे में नहीं है कि जनता में एक इतना बड़ा जबरदस्त परिवर्तन अर्थात् लाखों मनुष्यों का धर्म परिवर्तन हो जाय और इस परिवर्तन के सम्बन्ध में उस समय या उसके बाद के साहित्य में गन्ध तक न मिले यह कदापि सम्भव नहीं है। जब कि उस समय की साधारण घटनाओं के लिये बड़े २ ग्रन्थ निर्माण हो चुके हैं । जैसे कि: १-प्राचार्य हरिभद्रसूरि ब्राह्मण धर्म से जैनधर्म में आये । ऐसी तत्कालीन सामान्य घटनाओं का विस्तृत वर्णन जैनसाहित्य में उपलब्ध होता है । आपक समय जैनग्रन्थों के आधार छटी शताब्दी का है। २-आचार्य बप्पभट्टसूरि ने ग्वालियर के राजा आम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया और उसकी एक रानी की संतान ओसवंश में मिल गई, जिसका गोत्र राजकोष्ठागर हुआ जो कि ओसवाल जाति का एक अंग है। इस घटना का उल्लेख भी जैन साहित्य में अत्यन्त विस्तारपूर्ण मिलता है। इस घटना का समय विक्रम की ९ वीं शताब्दी का प्रारम्भिक काल है। ३-आचार्य शीलगुणसूरि ने बनराज चावड़ा को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसने वि० सं० ८०२ में पाटण नगर बसाया । जिसका उल्लेख भी उसी समय के प्रन्थों में मिलता है । ४-आचार्य उदयप्रभसूरि ने विक्रम की आठवीं शताब्दी में भिन्नमाल नगर के राजा भाण तथा ६२ कोटाधीशों को जैन बनाया इत्यादि । घटनाओं से साहित्य शोभायमान हैं । ५-वादीवैताल आचार्य शान्तिसूरिने राजा भोज की सभा में जाकर वहां के पंडितोंसे बड़ाभारी यश कमाया इत्यादि । इन सबका अधिकार जैनसाहित्य में विद्यमान है इनका समय विक्रम की दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी का है। viaN Jain Education International For Private & Personal Use Only www. g ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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